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औद्योगिक विवाद अधिनियम, कारखाना अधिनियम आदि के तहत सुप्रीम कोर्ट की गहन विवेचना

कर्मचारी-नियोक्ता संबंध की पहचान के मानदंड : औद्योगिक विवाद अधिनियम, कारखाना अधिनियम आदि के तहत सुप्रीम कोर्ट की गहन विवेचना


प्रस्तावना

श्रमिक-नियोक्ता संबंध (Employer–Employee Relationship) भारतीय श्रम कानून का आधारभूत स्तंभ है। चाहे मामला औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (Industrial Disputes Act) के तहत हो या कारखाना अधिनियम, 1948 (Factories Act), किसी भी श्रमिक विवाद या दुर्घटना मुआवज़े के निर्धारण से पहले यह स्थापित करना आवश्यक होता है कि संबंधित व्यक्ति वास्तव में “कर्मचारी” (Workman/Employee) है या नहीं, और उसका “नियोक्ता” (Employer) कौन है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में इस प्रश्न पर विस्तृत चर्चा की कि कर्मचारी-नियोक्ता संबंध स्थापित करने के लिए कौन-कौन से परीक्षण (Tests) अपनाए जाने चाहिए। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि मात्र नाम या अनुबंध से यह संबंध तय नहीं होता, बल्कि कार्य के वास्तविक स्वरूप, नियंत्रण, पर्यवेक्षण, और पारिश्रमिक के भुगतान के आधार पर इसे निर्धारित किया जाता है।


मामले की पृष्ठभूमि

विवाद उस स्थिति से उत्पन्न हुआ जहाँ कुछ श्रमिकों का दावा था कि वे एक बड़ी औद्योगिक इकाई में प्रत्यक्ष रूप से नियोजित कर्मचारी (Direct Employees) हैं, जबकि कंपनी का तर्क था कि वे ठेकेदार के माध्यम से कार्यरत (Contract Labour) हैं और इसलिए उन्हें कंपनी के नियमित कर्मचारियों के समान लाभ नहीं मिल सकते।

श्रमिकों ने दावा किया कि वे पिछले कई वर्षों से उसी परिसर में कार्य कर रहे हैं, कंपनी के अधिकारियों के नियंत्रण में हैं, और कार्य का स्वरूप स्थायी (Permanent) है। इसलिए उन्हें औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत “Workman” माना जाए और नियमितीकरण (Regularisation) के लाभ दिए जाएं।

मामला श्रम न्यायालय से होते हुए उच्च न्यायालय और अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा।


मुख्य प्रश्न (Core Issue)

क्या उक्त श्रमिकों और औद्योगिक इकाई के बीच Employer–Employee Relationship सिद्ध होता है?
और यदि हाँ, तो किन आधारों पर यह संबंध कानूनी रूप से स्थापित किया जा सकता है?


सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में इस विषय पर विभिन्न न्यायिक दृष्टांतों (Judicial Precedents) का विस्तृत हवाला देते हुए यह कहा कि “कोई एकल परीक्षण (single test) ऐसा नहीं है जिससे यह तय किया जा सके कि कोई व्यक्ति किसी विशेष संस्था का कर्मचारी है या नहीं।”
बल्कि यह एक मिश्रित प्रश्न (mixed question of fact and law) है, जो विभिन्न परिस्थितियों, दस्तावेज़ों और कार्य की वास्तविक प्रकृति पर निर्भर करता है।

न्यायालय ने कहा कि यह निर्धारण करते समय निम्नलिखित परीक्षण (Tests) सबसे महत्वपूर्ण हैं —


1. Control and Supervision Test (नियंत्रण एवं पर्यवेक्षण परीक्षण)

यह सबसे पारंपरिक और प्रमुख परीक्षण है।
यदि नियोक्ता के पास यह अधिकार है कि वह कर्मचारी को

  • कार्य कैसे करना है,
  • कब करना है,
  • किस साधन से करना है, और
  • उसकी निगरानी और अनुशासन कैसे रखा जाएगा —
    तो यह संबंध “नियोक्ता-कर्मचारी” का माना जाता है।

मामले उद्धृत:

  • Dharangadhra Chemical Works Ltd. v. State of Saurashtra (1957 AIR 264)
  • Workmen of Nilgiri Coop. Mkt. Society Ltd. v. State of Tamil Nadu (2004) 3 SCC 514

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मात्र वेतन देने या नियुक्ति पत्र में नाम होने से संबंध सिद्ध नहीं होता, बल्कि यह देखना आवश्यक है कि “नियोक्ता” के पास वास्तविक नियंत्रण और दिशा देने की शक्ति (Actual Control) है या नहीं।


2. Integration Test (संघटन परीक्षण)

यह परीक्षण देखता है कि कर्मचारी संस्थान की मुख्य गतिविधियों का अभिन्न हिस्सा (Integral Part) है या नहीं।
यदि कर्मचारी का कार्य संगठन की मूल कार्यप्रणाली से जुड़ा हुआ है, तो उसे बाहरी ठेकेदार का नहीं बल्कि संस्थान का ही कर्मचारी माना जाएगा।

उदाहरण:
यदि कोई व्यक्ति कारखाने के उत्पादन विभाग में नियमित रूप से कार्य करता है, उसी समय-सारणी का पालन करता है, और कंपनी के पर्यवेक्षकों के अधीन काम करता है, तो उसे “संघटन परीक्षण” के तहत कंपनी का कर्मचारी माना जा सकता है।


3. Economic Control Test (आर्थिक निर्भरता परीक्षण)

यह देखा जाता है कि क्या कर्मचारी की आर्थिक निर्भरता (Economic Dependence) पूरी तरह से उस नियोक्ता पर है।
यदि कर्मचारी की आजीविका उसी संस्थान पर निर्भर है, तो यह नियोक्ता-कर्मचारी संबंध को सशक्त करता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल ठेकेदार के माध्यम से वेतन पाने से यह सिद्ध नहीं होता कि कर्मचारी स्वतंत्र है। यदि वास्तविक नियंत्रण कंपनी का है और आर्थिक निर्भरता उसी पर है, तो कंपनी को नियोक्ता माना जा सकता है।


4. Control over Recruitment and Disciplinary Power Test (नियुक्ति व अनुशासन परीक्षण)

यदि नियोक्ता के पास

  • नियुक्ति करने,
  • हटाने,
  • अनुशासनात्मक कार्रवाई करने,
    या
  • छुट्टी स्वीकृत करने की शक्ति है,
    तो यह संबंध नियोक्ता-कर्मचारी का प्रतीक है।

इस परीक्षण में यह देखा जाता है कि अनुशासनात्मक नियंत्रण वास्तव में किसके पास है — ठेकेदार के पास या औद्योगिक इकाई के पास।


5. Payment of Wages Test (वेतन भुगतान परीक्षण)

किसके द्वारा वेतन का भुगतान किया जा रहा है, यह भी एक महत्वपूर्ण कारक है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह केवल एक सहायक परीक्षण है, निर्णायक नहीं।
यदि कंपनी ठेकेदार के माध्यम से भुगतान कर रही है पर वास्तविक आर्थिक नियंत्रण वही रखती है, तो यह संबंध सिद्ध करने के पक्ष में जाता है।


6. Nature of Work Test (कार्य का स्वरूप परीक्षण)

यदि कार्य अस्थायी, आकस्मिक या विशिष्ट परियोजना से जुड़ा है, तो व्यक्ति को स्थायी कर्मचारी नहीं माना जा सकता।
परंतु यदि कार्य निरंतर, नियमित, और संस्थान के मूल उत्पादन से संबंधित है, तो यह “नियमित रोजगार” माना जाएगा।

उदाहरण:
किसी फैक्ट्री में रख-रखाव (maintenance), सफाई, पैकेजिंग आदि के कर्मचारी जो वर्षों से काम कर रहे हों, उन्हें केवल “कॉन्ट्रैक्ट लेबर” कहकर बाहर नहीं किया जा सकता।


सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि —

“The determination of employer–employee relationship is not a matter of form but of substance. The real test lies in the actual relationship of work, supervision, and control, not merely in contractual documents.”

न्यायालय ने यह भी जोड़ा कि आज के समय में कंपनियां अक्सर “आउटसोर्सिंग” या “कॉन्ट्रैक्ट लेबर” के नाम पर स्थायी कर्मचारियों की जिम्मेदारी से बचने का प्रयास करती हैं। परंतु अदालतों को दस्तावेज़ों से अधिक वास्तविक परिस्थितियों (factual realities) को महत्व देना चाहिए।


Factories Act के संदर्भ में दृष्टिकोण

कारखाना अधिनियम, 1948 की धारा 2(l) में “worker” को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि —

“A worker means a person employed, directly or through any agency, in any manufacturing process, with or without the knowledge of the principal employer.”

इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कारखाने की निर्माण प्रक्रिया में कार्यरत है, तो उसे “worker” माना जाएगा, चाहे उसे किसने नियुक्त किया हो।

इसलिए, Factories Act के अंतर्गत कर्मचारी-नियोक्ता संबंध का निर्धारण नियंत्रण और कार्य की प्रकृति से होता है, न कि केवल अनुबंध की भाषा से।


Industrial Disputes Act के संदर्भ में

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2(s) में “Workman” की परिभाषा दी गई है, जिसमें यह स्पष्ट है कि —

“Any person employed in any industry to do manual, skilled, unskilled, technical, operational, clerical or supervisory work for hire or reward.”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह परिभाषा “Substance over form” के सिद्धांत पर आधारित है।
इसलिए यह देखना आवश्यक है कि व्यक्ति वास्तव में उस उद्योग में कार्य कर रहा है और उसका कार्य उद्योग की नियमित गतिविधियों का हिस्सा है या नहीं।


अन्य प्रमुख निर्णयों का संदर्भ

  1. Hussainbhai v. Alath Factory Thezhilali Union (1978 AIR 1410)
    → कोर्ट ने कहा कि वास्तविक नियंत्रण और आर्थिक निर्भरता के आधार पर संबंध सिद्ध होता है।
  2. Basti Sugar Mills Co. Ltd. v. Ram Ujagar (1964 AIR 355)
    → अनुबंध की शर्तें निर्णायक नहीं, बल्कि कार्य का स्वरूप और पर्यवेक्षण महत्वपूर्ण है।
  3. Steel Authority of India Ltd. v. National Union Water Front Workers (2001) 7 SCC 1
    → कोर्ट ने कहा कि कॉन्ट्रैक्ट लेबर को स्वचालित रूप से नियमित नहीं किया जा सकता, परंतु यदि संबंध वास्तविक रूप से सिद्ध हो तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
  4. Balwant Rai Saluja v. Air India Ltd. (2014) 9 SCC 407
    → सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह संबंध तथ्यों पर निर्भर करता है और कोई एकल मानदंड निर्णायक नहीं है।

न्यायालय का निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि —

  1. यदि कोई कर्मचारी वर्षों से उसी कार्यस्थल पर, उसी पर्यवेक्षण में, और नियमित कार्य कर रहा है, तो यह माना जा सकता है कि वह वास्तविक रूप से नियोक्ता का कर्मचारी है।
  2. केवल ठेकेदार के माध्यम से नियुक्ति का दावा करके कंपनी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती।
  3. औद्योगिक न्यायालयों को प्रत्येक मामले में तथ्यों की जांच करनी होगी और केवल दस्तावेज़ों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
  4. कर्मचारी की वास्तविक स्थिति को पहचानना सामाजिक न्याय (Social Justice) के सिद्धांत का हिस्सा है।

निष्कर्ष

यह निर्णय श्रम न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण दिशा प्रदान करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि “Employer–Employee Relationship” एक वास्तविक और जीवंत संबंध है, जो कागज़ी अनुबंधों से नहीं, बल्कि कार्य के वास्तविक स्वरूप, नियंत्रण और आर्थिक निर्भरता से तय होता है।

यह निर्णय श्रमिकों को यह विश्वास देता है कि वे यदि वास्तव में किसी संस्थान के अधीन कार्य कर रहे हैं, तो उन्हें केवल “कॉन्ट्रैक्ट लेबर” कहकर उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।

न्यायालय का यह दृष्टिकोण समानता, गरिमा और श्रम के सम्मान के संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप है।


मुख्य बिंदुओं का सारांश

परीक्षण अर्थ प्रासंगिक महत्व
Control Test कार्य पर नियोक्ता का नियंत्रण सबसे प्रमुख
Integration Test कार्य संगठन का हिस्सा है या नहीं निर्णायक
Economic Dependence Test कर्मचारी की आर्थिक निर्भरता सहायक
Recruitment & Discipline Test नियुक्ति और दंड का नियंत्रण महत्वपूर्ण
Nature of Work Test कार्य स्थायी या अस्थायी प्रासंगिक

समापन टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय श्रम कानूनों की आत्मा को पुनर्स्थापित करता है —
कि श्रमिक केवल आर्थिक साधन नहीं, बल्कि मानव गरिमा के अधिकारी हैं।
कर्मचारी-नियोक्ता संबंध की पहचान का उद्देश्य केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की प्राप्ति है।
इस दृष्टि से यह निर्णय औद्योगिक संबंधों में संतुलन और पारदर्शिता की दिशा में एक मील का पत्थर है।