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“ओडिशा हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: बैंक अकेले किसी एक धारक के ऋण की वसूली के लिए संयुक्त खाते से धनराशि नहीं काट सकता”

“ओडिशा हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: बैंक अकेले किसी एक धारक के ऋण की वसूली के लिए संयुक्त खाते से धनराशि नहीं काट सकता”


भूमिका

भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में संयुक्त खाता (Joint Account) एक सामान्य और प्रचलित वित्तीय सुविधा है, जिसका उपयोग पति-पत्नी, परिजन या व्यापारिक साझेदार आपसी विश्वास और सुविधा के लिए करते हैं। परंतु जब इन खातों में से किसी एक धारक पर व्यक्तिगत ऋण (Personal Loan) का दायित्व होता है, तो प्रश्न उठता है कि क्या बैंक उस ऋण की वसूली के लिए संयुक्त खाते से धनराशि काट सकता है?

ओडिशा हाईकोर्ट ने हाल ही में इस संवेदनशील और महत्वपूर्ण प्रश्न पर एक निर्णायक निर्णय सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि किसी एक खातेधारक के व्यक्तिगत ऋण की वसूली के लिए बैंक को संयुक्त खाते से धनराशि काटने का अधिकार नहीं है, जब तक कि सभी खातेधारक इसकी अनुमति न दें। यह फैसला बैंकिंग लेन-देन की पारदर्शिता, न्याय और उपभोक्ता अधिकारों की सुरक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जा रहा है।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला भारत चंद्र मलिक बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से संबंधित है। याचिकाकर्ता भारत चंद्र मलिक एक सेवानिवृत्त रेलकर्मी थे, जिन्होंने अपनी पत्नी के साथ एक संयुक्त बचत खाता खोला था। कुछ समय बाद, बैंक ने उनके व्यक्तिगत ऋण की बकाया राशि के लिए ₹5 लाख सीधे उस संयुक्त खाते से काट लिए, बिना किसी पूर्व सूचना या अनुमति के।

मलिक ने इस कार्रवाई को अनुचित, अवैध और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन बताया। उन्होंने तर्क दिया कि यह धनराशि केवल उनकी नहीं, बल्कि उनकी पत्नी की भी थी, और बैंक को बिना पूर्व सूचना के इस प्रकार की जब्ती का कोई अधिकार नहीं था।


बैंक का पक्ष

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) ने अपने बचाव में यह तर्क दिया कि

  • याचिकाकर्ता (मलिक) ने बैंक से ऋण लिया था और उस पर भुगतान बकाया था।
  • चूंकि वह उसी शाखा का खाता धारक था, इसलिए बैंक को “Right of Set-Off” यानी समायोजन का अधिकार था।
  • बैंक ने केवल उसी अधिकार का उपयोग किया और ऋण की वसूली के लिए राशि काट ली।

बैंक का कहना था कि यह कार्रवाई वैधानिक अधिकारों के अंतर्गत की गई है और इसमें किसी प्रकार की गैरकानूनीता नहीं है।


याचिकाकर्ता का तर्क

भारत चंद्र मलिक की ओर से पेश किए गए प्रमुख तर्क निम्नलिखित थे—

  1. संयुक्त खाते में उनकी पत्नी की भी बराबर की हिस्सेदारी थी।
  2. ऋण केवल उन्होंने व्यक्तिगत रूप से लिया था, न कि उनकी पत्नी ने।
  3. बैंक ने बिना किसी सूचना या अनुमति के राशि काट ली, जिससे प्राकृतिक न्याय (Principles of Natural Justice) का उल्लंघन हुआ।
  4. बैंक को “Right of Set-Off” का उपयोग करने से पहले सभी खातेधारकों को सूचित करना चाहिए था।
  5. संयुक्त खाते से एकतरफा राशि निकालना संविधान के अनुच्छेद 300A (संपत्ति के अधिकार) का उल्लंघन है।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

न्यायमूर्ति बी.आर. सारंगी और न्यायमूर्ति एम.एस. साहू की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए विस्तृत टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि—

  1. संयुक्त खाता दो या अधिक व्यक्तियों की संयुक्त संपत्ति होती है।
    इसलिए किसी एक व्यक्ति के व्यक्तिगत दायित्व की पूर्ति के लिए दूसरे व्यक्ति की सहमति के बिना खाते से धन नहीं काटा जा सकता।
  2. बैंक का “Right of Set-Off” सीमित होता है।
    यह अधिकार तभी प्रयोग किया जा सकता है जब ऋण उसी व्यक्ति के खाते से संबंधित हो या सभी खातेधारकों ने इसकी अनुमति दी हो।
  3. प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत यह कहता है कि किसी भी व्यक्ति के वित्तीय हित को प्रभावित करने से पहले उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए।
  4. बैंक द्वारा बिना सूचना ₹5 लाख काट लेना मनमाना और अवैध कार्य है।

इसलिए कोर्ट ने आदेश दिया कि—

  • बैंक को याचिकाकर्ता के संयुक्त खाते से काटी गई ₹5 लाख की राशि तुरंत लौटानी होगी।
  • साथ ही, बैंक को इस प्रकार की कार्रवाई भविष्य में न दोहराने की चेतावनी दी गई।

फैसले का कानूनी महत्व

यह फैसला केवल एक व्यक्ति की राहत का मामला नहीं है, बल्कि यह समूची बैंकिंग प्रणाली के लिए एक महत्वपूर्ण नजीर (Judicial Precedent) है।

(1) संयुक्त खाते की सुरक्षा:
अब यह स्पष्ट हो गया है कि बैंक संयुक्त खाते में से किसी एक धारक के ऋण के लिए राशि नहीं काट सकता। यह कदम खाते के दूसरे धारक के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

(2) ग्राहक अधिकारों की रक्षा:
बैंक ग्राहकों के धन का संरक्षक होता है, मालिक नहीं। इसलिए बैंक को ग्राहक की अनुमति या सूचना के बिना कोई भी एकतरफा वित्तीय कार्रवाई नहीं करनी चाहिए।

(3) प्राकृतिक न्याय का अनुपालन:
फैसले ने यह दोहराया कि किसी भी व्यक्ति की संपत्ति या बैंक बैलेंस पर कार्रवाई करने से पहले उचित सूचना और सुनवाई आवश्यक है।


कानूनी संदर्भ

कोर्ट ने अपने निर्णय में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों और प्रावधानों का उल्लेख किया—

  1. Indian Contract Act, 1872 की धारा 171 और 173 के अंतर्गत बैंक का general lien और set-off अधिकार मान्य है, परंतु यह अधिकार समान व्यक्तियों के खातों तक सीमित है।
  2. Reserve Bank of India (RBI) के दिशानिर्देशों में भी यह स्पष्ट किया गया है कि संयुक्त खाते से एक खातेधारक के ऋण की वसूली के लिए अन्य धारक की अनुमति आवश्यक है।
  3. Article 300A of the Constitution of India यह सुनिश्चित करता है कि किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से केवल विधि द्वारा ही वंचित किया जा सकता है, न कि मनमाने तरीके से।

नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण

यह फैसला केवल कानून की दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत में अधिकांश संयुक्त खाते पति-पत्नी या परिवार के सदस्यों के बीच खोले जाते हैं। यदि बैंक किसी एक के व्यक्तिगत ऋण के लिए दूसरे की मेहनत की कमाई को जब्त करने लगे, तो यह न केवल आर्थिक अन्याय होगा बल्कि परिवारिक विश्वास को भी तोड़ेगा।

यह निर्णय नागरिकों के बीच वित्तीय सुरक्षा और बैंकिंग संस्थाओं के प्रति विश्वास को मजबूत करेगा।


आगे का प्रभाव (Impact and Implications)

  1. बैंकिंग प्रथाओं पर असर:
    बैंकों को अब अपने आंतरिक नियमों की समीक्षा करनी होगी ताकि ऐसी मनमानी कार्रवाइयों से बचा जा सके।
  2. ग्राहक जागरूकता में वृद्धि:
    यह फैसला ग्राहकों को अपने अधिकारों के प्रति अधिक सतर्क करेगा और वे संयुक्त खातों के संचालन में अधिक सावधानी बरतेंगे।
  3. भविष्य के विवादों में मार्गदर्शन:
    अन्य हाईकोर्ट और निचली अदालतें इस फैसले को एक नजीर के रूप में स्वीकार करेंगी और इससे संबंधित भविष्य के मामलों में इसी सिद्धांत का पालन करेंगी।

निष्कर्ष

ओडिशा हाईकोर्ट का यह फैसला बैंकिंग क्षेत्र के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। यह निर्णय न केवल बैंकिंग संस्थाओं को अपने अधिकारों की सीमाएं याद दिलाता है, बल्कि आम नागरिकों के वित्तीय अधिकारों की रक्षा भी करता है।

संयुक्त खाते में सभी धारक समान अधिकार रखते हैं, और किसी एक की गलती या दायित्व के कारण दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता।

इस प्रकार, “भारत चंद्र मलिक बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया” मामला भारतीय न्यायपालिका के उस दृष्टिकोण को दर्शाता है, जिसमें “न्याय केवल कानून का पालन नहीं, बल्कि नैतिकता और निष्पक्षता की रक्षा भी है।”