ऑपरेशन सिंदूर में शामिल होना अपराध की छूट नहीं देता’ — पत्नी की हत्या के आरोपी कमांडो को सुप्रीम कोर्ट की फटकार

शीर्षक: ‘ऑपरेशन सिंदूर में शामिल होना अपराध की छूट नहीं देता’ — पत्नी की हत्या के आरोपी कमांडो को सुप्रीम कोर्ट की फटकार


प्रस्तावना:
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक सैन्य कमांडो को सख्त फटकार लगाई है, जिस पर अपनी पत्नी की बेरहमी से हत्या करने का आरोप है। आरोपी की ओर से यह दलील दी गई कि वह भारतीय सेना के एक प्रतिष्ठित ऑपरेशन ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का हिस्सा रहा है और इस नाते उसे विशेष सहानुभूति मिलनी चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा —

“ऑपरेशन सिंदूर में शामिल होना क्राइम करने की छूट नहीं देता।”
यह टिप्पणी कानून के समक्ष समानता, सैन्य सम्मान और अपराध के बीच संतुलन की गहरी समझ को दर्शाती है।


मामले की पृष्ठभूमि:
यह केस एक विशेष बल के कमांडो से जुड़ा है, जिसने लंबे समय तक देश के लिए सेवा की। आरोपी का दावा है कि उसने अत्यंत चुनौतीपूर्ण ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में हिस्सा लिया था, जो देश की सुरक्षा के लिए एक रणनीतिक सैन्य अभियान था। लेकिन इसी कमांडो पर आरोप है कि उसने अपनी पत्नी की हत्या अत्यंत क्रूरता से की।

  • हत्या की परिस्थितियाँ:
    आरोपी की पत्नी का शव संदिग्ध परिस्थितियों में उनके घर से मिला। प्रारंभिक जांच और फॉरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार, हत्या पूर्वनियोजित प्रतीत होती है।
  • आरोपी की दलील:
    आरोपी ने अपने सैन्य सेवाकाल और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में अपनी भूमिका का हवाला देते हुए अदालत से नरमी की मांग की।

सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी:
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति पी.बी. वराले की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि —

“देश के लिए किया गया सेवा सम्माननीय है, लेकिन वह किसी को कानून तोड़ने या जीवन छीनने का लाइसेंस नहीं देता। एक कमांडो होने का मतलब यह नहीं कि वह न्याय से ऊपर है।”
अदालत ने कहा कि सैन्य सम्मान और कर्तव्य निर्वाह एक पक्ष है, लेकिन घरेलू हिंसा या हत्या जैसे अपराध माफी योग्य नहीं हो सकते।


कानूनी दृष्टिकोण:
भारतीय संविधान और दंड संहिता (IPC) के अनुसार:

  • सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं (अनुच्छेद 14)।
  • हत्या एक गंभीर अपराध है (IPC की धारा 302), जिसमें दोषी पाए जाने पर आजीवन कारावास या मृत्युदंड तक हो सकता है।
  • चाहे वह आम नागरिक हो या वीरता पदक प्राप्त सैनिक, यदि कोई अपराध करता है, तो उसे उसी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होता है।

सैन्य सेवा बनाम आपराधिक आचरण:
भारत की न्यायपालिका अक्सर सेना और सुरक्षाबलों के योगदान को सराहती है, लेकिन बार-बार यह भी दोहराती रही है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितनी ही प्रतिष्ठित सेवा में क्यों न हो, कानून से ऊपर नहीं है।

  • वीरता सम्मान या ऑपरेशनल सेवा केवल पुरस्कार का आधार हो सकते हैं, अपराध के लिए ढाल नहीं।

पीड़िता के परिवार की प्रतिक्रिया:
पीड़िता के परिवार ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को ‘न्याय की दिशा में सकारात्मक संकेत’ बताया और कहा कि उनकी बेटी को मारने वाला व्यक्ति चाहे कोई भी हो, उसे सजा मिलनी ही चाहिए।


संदेश और निष्कर्ष:
यह मामला कई स्तरों पर विचारणीय है —

  1. सैन्य सेवा और निजी आचरण के बीच अंतर को स्पष्ट करता है।
  2. महिला अधिकार और घरेलू हिंसा के मामलों में कड़ी न्यायिक दृष्टि का उदाहरण है।
  3. यह दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका कानून की समानता के सिद्धांत पर अडिग है।

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी न केवल इस विशेष मामले के लिए, बल्कि व्यापक रूप से एक मजबूत संदेश देती है:

“कितना भी बड़ा राष्ट्रभक्त क्यों न हो, यदि वह अपराध करता है, तो उसे कानून का सामना करना ही होगा।”


अंतिम प्रश्न:
क्या हम राष्ट्रसेवकों को उनके योगदान के नाम पर आपराधिक छूट देने की संस्कृति को प्रोत्साहित कर रहे हैं, या न्याय की रक्षा कर रहे हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना उत्तर स्पष्ट रूप से दे दिया है — “न्याय सर्वोपरि है।”