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एससी/एसटी अधिनियम के तहत अग्रिम जमानत पर प्रतिबंध: जब प्राथमिकी में प्रथमदृष्टया मामला बनता है तो राहत असंभव – सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट दृष्टिकोण

एससी/एसटी अधिनियम के तहत अग्रिम जमानत पर प्रतिबंध: जब प्राथमिकी में प्रथमदृष्टया मामला बनता है तो राहत असंभव – सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट दृष्टिकोण


प्रस्तावना :
भारतीय समाज में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध भेदभाव और अत्याचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए, संसद ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989) को लागू किया। इस अधिनियम का उद्देश्य केवल अपराधों को दंडित करना नहीं, बल्कि समाज के कमजोर वर्गों को संरक्षित करना भी है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि यदि प्राथमिकी (FIR) में किए गए आरोपों से प्रथमदृष्टया (prima facie) कोई अपराध एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत बनता है, तो अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लागू होगा।


पृष्ठभूमि :
अग्रिम जमानत भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code, Section 438) के तहत एक महत्वपूर्ण सुरक्षा है, जो व्यक्ति को गिरफ्तारी से पूर्व राहत प्रदान करती है। किंतु एससी/एसटी अधिनियम, 1989 की धारा 18 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध के लिए धारा 438 CrPC के प्रावधान लागू नहीं होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि आरोप इस अधिनियम के अंतर्गत आते हैं, तो आरोपी अग्रिम जमानत का लाभ नहीं उठा सकता।

हालांकि समय-समय पर उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा की व्याख्या में विभिन्न दृष्टिकोण अपनाए हैं। Subhash Kashinath Mahajan v. State of Maharashtra (2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ सीमित परिस्थितियों में अग्रिम जमानत की अनुमति दी थी, जिससे व्यापक विवाद उत्पन्न हुआ। बाद में संसद ने 2018 में संशोधन अधिनियम लाकर स्पष्ट किया कि अग्रिम जमानत पर रोक पूर्णत: लागू रहेगी।


नवीनतम निर्णय और उसका कानूनी प्रभाव :
हाल के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः इस प्रश्न पर विचार किया कि क्या अग्रिम जमानत दी जा सकती है जब एफआईआर में एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत अपराध का उल्लेख हो। न्यायालय ने कहा कि—

“यदि प्राथमिकी में वर्णित तथ्यों से प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त ने अनुसूचित जाति या जनजाति के सदस्य के विरुद्ध कोई अपराध किया है, तो धारा 18 के अनुसार अग्रिम जमानत पर पूर्ण प्रतिबंध लागू होगा।”

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि अदालत इस स्तर पर यह जांच नहीं कर सकती कि अभियोजन का मामला सही है या झूठा, क्योंकि यह तथ्यात्मक जांच का विषय है, जो ट्रायल के दौरान ही निर्धारित की जा सकती है।


निर्णय का तर्क :

  1. विधायी उद्देश्य की रक्षा:
    न्यायालय ने कहा कि एससी/एसटी अधिनियम का उद्देश्य केवल अपराधों को दंडित करना नहीं, बल्कि समाज के हाशिये पर खड़े वर्गों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है। अग्रिम जमानत देने से यह उद्देश्य विफल हो सकता है।
  2. प्रथमदृष्टया परीक्षण पर्याप्त:
    न्यायालय ने माना कि इस स्तर पर केवल यह देखना आवश्यक है कि क्या एफआईआर में आरोप इस अधिनियम की किसी धारा के अंतर्गत आते हैं। यदि हां, तो आगे की विवेचना अग्रिम जमानत याचिका के माध्यम से नहीं की जा सकती।
  3. न्यायिक विवेक की सीमा:
    कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि इस चरण पर न्यायालय केवल आरोपों की विश्वसनीयता या सत्यता की जांच नहीं कर सकता। इसका परीक्षण ट्रायल में साक्ष्यों के आधार पर होगा।
  4. दुरुपयोग की आशंका पर टिप्पणी:
    न्यायालय ने माना कि हालांकि कुछ मामलों में अधिनियम का दुरुपयोग हो सकता है, लेकिन यह संभावित दुरुपयोग किसी सामाजिक सुरक्षा कानून की संवैधानिक वैधता या उसके मूल उद्देश्य को निष्प्रभावी नहीं कर सकता।

संबंधित प्रावधानों का विश्लेषण :

  • धारा 18, एससी/एसटी अधिनियम, 1989:
    “जहाँ किसी व्यक्ति पर इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध करने का आरोप है, वहाँ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अंतर्गत अग्रिम जमानत का प्रावधान लागू नहीं होगा।”
  • धारा 18A (संशोधन 2018):
    इस संशोधन में स्पष्ट किया गया कि कोई प्रारंभिक जांच (Preliminary Inquiry) आवश्यक नहीं है और अग्रिम जमानत पर प्रतिबंध पूर्ण रूप से लागू रहेगा, चाहे आरोप झूठे होने का दावा क्यों न किया जाए।

महत्वपूर्ण न्यायिक उदाहरण :

  1. Prathvi Raj Chauhan v. Union of India (2020) 4 SCC 727
    सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 18A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा और कहा कि अग्रिम जमानत केवल उसी स्थिति में विचारणीय हो सकती है जब एफआईआर में अपराध के आवश्यक तत्व ही न हों।
  2. State of M.P. v. Ram Krishna Balothia (1995)
    इसमें न्यायालय ने कहा था कि धारा 438 के लाभ को नकारना संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के समान नहीं है, क्योंकि यह विशेष कानून के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक है।
  3. Subhash Kashinath Mahajan (2018)
    हालांकि इस निर्णय में न्यायालय ने अग्रिम जमानत को सीमित रूप में अनुमति दी थी, लेकिन बाद में संसद ने संशोधन कर इस ढिलाई को समाप्त कर दिया।

व्यावहारिक प्रभाव :
इस निर्णय का सीधा प्रभाव यह है कि अब यदि कोई व्यक्ति एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत आरोपित है, और एफआईआर में अपराध के तत्व प्रथम दृष्टया मौजूद हैं, तो वह अग्रिम जमानत की मांग नहीं कर सकेगा।
केवल उसी स्थिति में अग्रिम जमानत संभव है जब शिकायत या प्राथमिकी में अपराध का कोई तत्व न हो, या यह स्पष्ट रूप से झूठी और दुर्भावनापूर्ण शिकायत हो।


आलोचनात्मक दृष्टिकोण :
कुछ विधि विशेषज्ञों का मत है कि इस प्रकार का पूर्ण प्रतिबंध न्यायिक विवेक की स्वतंत्रता को सीमित करता है। कई बार झूठे या बदले की भावना से दर्ज मामलों में निर्दोष व्यक्ति भी गिरफ्तारी की आशंका से पीड़ित रहते हैं।
हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सामाजिक न्याय की रक्षा के लिए कड़े उपाय आवश्यक हैं, ताकि अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों को वास्तविक संरक्षण मिल सके।


संवैधानिक दृष्टि से विश्लेषण :
संविधान का अनुच्छेद 17 “अस्पृश्यता” के उन्मूलन की घोषणा करता है, जबकि अनुच्छेद 46 राज्य को यह दायित्व देता है कि वह अनुसूचित जातियों और जनजातियों के हितों की विशेष रूप से रक्षा करे।
एससी/एसटी अधिनियम इन्हीं संवैधानिक मूल्यों का विधायी विस्तार है। अतः अग्रिम जमानत पर प्रतिबंध इस संरक्षणात्मक व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है और संविधान के अनुच्छेद 14 व 21 का उल्लंघन नहीं करता।


न्यायालय की अंतिम टिप्पणी :
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा—

“जब एफआईआर से प्रथमदृष्टया अपराध का निर्माण होता है, तो अदालत अग्रिम जमानत देने का अधिकार नहीं रखती। इस स्तर पर आरोपी को गिरफ्तारी से संरक्षण नहीं दिया जा सकता, अन्यथा अधिनियम का उद्देश्य ही निष्प्रभावी हो जाएगा।”


निष्कर्ष :
यह निर्णय न्यायपालिका की उस दृढ़ प्रतिबद्धता का प्रतीक है जो वह सामाजिक न्याय, समानता और हाशिये पर खड़े वर्गों की गरिमा की रक्षा हेतु निभा रही है।
एससी/एसटी अधिनियम का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन की दिशा में ठोस कदम उठाना है। यदि अग्रिम जमानत जैसे उपायों से आरोपी को पूर्व सुरक्षा दी जाए, तो पीड़ित वर्गों के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

        इसलिए, जब तक एफआईआर में किए गए आरोप प्रथम दृष्टया इस अधिनियम के तहत अपराध का संकेत देते हैं, अग्रिम जमानत का लाभ नहीं दिया जा सकता। यह सिद्धांत न्याय, सुरक्षा और समानता की दिशा में एक संतुलित एवं सशक्त कदम है, जो भारतीय न्याय प्रणाली को सामाजिक संवेदनशीलता के साथ जोड़ता है।