एफ.आई.आर. की क्वैशिंग: राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष धारा 528 बी.एन.एस.एस. के अंतर्गत विधिक परिप्रेक्ष्य
प्रस्तावना
भारतीय दंड न्याय प्रणाली में यह प्रावधान है कि यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध झूठा या दुर्भावनापूर्ण प्राथमिकी (FIR) दर्ज की जाती है, तो उसे न्यायालय में चुनौती देकर रद्द (Quash) करवाया जा सकता है। संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध बिना ठोस आधार के एफ.आई.आर. दर्ज कर दी जाती है, तो यह उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।
इसी उद्देश्य से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bhartiya Nagrik Suraksha Sanhita – BNSS) की धारा 528 में यह प्रावधान किया गया है कि उच्च न्यायालय को विशेषाधिकार प्राप्त है कि वह न्याय के हित में किसी भी आपराधिक कार्यवाही को निरस्त कर सकता है।
धारा 528 बी.एन.एस.एस. का प्रावधान
धारा 528 बी.एन.एस.एस. (जो पूर्ववर्ती दण्ड प्रक्रिया संहिता – CrPC की धारा 482 के समान है) उच्च न्यायालय को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान करती है—
- न्याय के हित में किसी भी प्रक्रिया का निरसन करना।
- दुरुपयोग (Abuse of Process) रोकने के लिए हस्तक्षेप करना।
- किसी व्यक्ति को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाना।
- जब प्राथमिकी का आधार ही असंगत या अवैध हो।
अर्थात, यदि प्राथमिकी से कोई संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) सिद्ध नहीं होता या उसका उद्देश्य केवल किसी व्यक्ति को प्रताड़ित करना है, तो उच्च न्यायालय अपने अंतर्निहित अधिकार (Inherent Power) का उपयोग करते हुए उसे निरस्त कर सकता है।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 और संशोधन 2018
Prevention of Corruption Act, 1988 सार्वजनिक सेवकों द्वारा रिश्वतखोरी, अनाधिकृत लाभ और भ्रष्ट आचरण को नियंत्रित करने हेतु बनाया गया था।
संशोधन 2018 के बाद इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- धारा 7 – सार्वजनिक सेवक द्वारा रिश्वत लेने या माँगने पर दंडनीय अपराध।
- धारा 7-A – किसी भी अनुचित लाभ को प्राप्त करने हेतु मध्यस्थता करना।
- धारा 17-A – सार्वजनिक सेवक के विरुद्ध जाँच आरम्भ करने से पूर्व सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति आवश्यक।
- दंड – न्यूनतम 3 वर्ष से लेकर अधिकतम 7 वर्ष तक का कारावास।
इस अधिनियम के तहत यदि उचित स्वीकृति प्राप्त किए बिना एफ.आई.आर. दर्ज की गई है, तो यह कानून का उल्लंघन माना जाता है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी (आपराधिक षड्यंत्र)
धारा 120-बी IPC आपराधिक षड्यंत्र (Criminal Conspiracy) को दंडनीय बनाती है। इसमें दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा किसी अवैध कार्य को अंजाम देने के लिए किया गया समझौता शामिल होता है।
हालाँकि, न्यायालयों ने कई बार यह स्पष्ट किया है कि षड्यंत्र का आरोप केवल अनुमान के आधार पर नहीं लगाया जा सकता, बल्कि ठोस सबूतों की आवश्यकता होती है। यदि ऐसे साक्ष्य अनुपस्थित हैं, तो षड्यंत्र का आरोप टिक नहीं पाता।
न्यायालयों द्वारा स्थापित सिद्धांत
भारत के उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने FIR की क्वैशिंग संबंधी कई मार्गदर्शक सिद्धांत निर्धारित किए हैं।
State of Haryana v. Bhajan Lal (1992 Supp (1) SCC 335) का मामला ऐतिहासिक है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने 7 परिस्थितियाँ बताई थीं, जिनमें FIR रद्द की जा सकती है—
- FIR में अपराध का कोई आधार नहीं है।
- FIR में लगाए गए आरोप असंभव या अविश्वसनीय हैं।
- FIR केवल प्रतिशोध (Vendetta) या दुर्भावना से दर्ज कराई गई है।
- FIR में लगाए गए आरोप कानूनी अपराध की परिभाषा में नहीं आते।
- आरोप निराधार हैं और आगे की जाँच से भी उनका औचित्य सिद्ध नहीं होता।
- FIR का उद्देश्य केवल आरोपी को प्रताड़ित करना है।
- न्याय के हित में कार्यवाही निरस्त करना आवश्यक है।
प्रकरण का विश्लेषण (उदाहरण स्वरूप)
उपरोक्त मामले में, याचिकाकर्ता (Accused-Petitioner) एक सार्वजनिक सेवक है, जो सीजीएसटी, जयपुर में एंटी-इवेशन इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत था।
FIR दिनांक 06.11.2023 को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 और धारा 120-बी IPC के अंतर्गत दर्ज की गई है।
किन्तु इस प्रकरण में निम्नलिखित कानूनी प्रश्न उठते हैं—
- क्या सक्षम प्राधिकारी से पूर्व स्वीकृति (Sanction u/s 17A PC Act) प्राप्त की गई थी?
- क्या FIR के आधार पर प्रथम दृष्टया रिश्वत माँगने या लेने का ठोस साक्ष्य मौजूद है?
- क्या आरोप केवल अनुमान, संदेह या प्रतिशोध के आधार पर लगाए गए हैं?
- क्या कार्यवाही का उद्देश्य केवल याचिकाकर्ता को अनावश्यक रूप से फँसाना है?
यदि इन प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है, तो न्यायालय FIR को निरस्त करने पर विचार कर सकता है।
विधिक तर्क (Legal Grounds)
याचिकाकर्ता निम्न आधारों पर राहत की मांग कर सकता है—
- अनुचित कार्यवाही – FIR दर्ज करते समय आवश्यक कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।
- पूर्व स्वीकृति का अभाव – PC Act की धारा 17A का उल्लंघन।
- भजनलाल के सिद्धांत – FIR झूठी, दुर्भावनापूर्ण और निराधार है।
- मौलिक अधिकार का उल्लंघन – अनुच्छेद 21 एवं 14 का हनन।
- न्याय के हित में हस्तक्षेप – धारा 528 BNSS के अंतर्गत।
निष्कर्ष
एफ.आई.आर. की क्वैशिंग (Quashing of FIR) असाधारण राहत है, जो केवल उन परिस्थितियों में दी जाती है, जब यह स्पष्ट हो कि प्राथमिकी कानून की दृष्टि में टिकाऊ नहीं है या उसका उद्देश्य केवल आरोपी को प्रताड़ित करना है।
राजस्थान उच्च न्यायालय, धारा 528 बी.एन.एस.एस. के अंतर्गत अपने विशेषाधिकार का उपयोग करते हुए ऐसी कार्यवाही को निरस्त कर सकता है।
इस प्रकार, प्रस्तुत प्रकरण में यदि यह सिद्ध होता है कि FIR बिना उचित स्वीकृति, बिना ठोस साक्ष्य और केवल प्रतिशोधवश दर्ज की गई है, तो याचिकाकर्ता को न्यायालय से FIR रद्द करवाने का पूरा अधिकार है। यह न केवल आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करेगा, बल्कि न्यायपालिका की निष्पक्षता और विधि के शासन (Rule of Law) को भी सुदृढ़ करेगा।
1. एफ.आई.आर. की क्वैशिंग (Quashing of FIR) क्या है?
एफ.आई.आर. की क्वैशिंग का अर्थ है दर्ज प्राथमिकी को न्यायालय द्वारा निरस्त करना। यह तब किया जाता है जब प्राथमिकी का आधार कानून सम्मत न हो या उसमें अपराध का प्रथम दृष्टया कोई तत्व न दिखता हो। उच्च न्यायालय को BNSS की धारा 528 के अंतर्गत अंतर्निहित शक्ति प्राप्त है कि वह न्याय के हित में कार्यवाही को समाप्त कर सके। सुप्रीम कोर्ट ने State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) में स्पष्ट किया कि यदि FIR दुर्भावनापूर्ण, निराधार या केवल प्रताड़ित करने के लिए दर्ज की गई हो, तो उसे रद्द किया जा सकता है। इस प्रकार यह शक्ति आरोपी को अनुचित उत्पीड़न से बचाने का एक महत्वपूर्ण साधन है।
2. BNSS की धारा 528 का उद्देश्य क्या है?
धारा 528 BNSS (पूर्व CrPC की धारा 482 के समान) उच्च न्यायालय को “Inherent Powers” प्रदान करती है। इसका उद्देश्य न्याय के हित में ऐसे मामलों को रोकना है जहाँ न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा हो। यह प्रावधान तीन मुख्य उद्देश्यों को पूरा करता है –
(1) न्याय सुनिश्चित करना,
(2) विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना,
(3) अभियुक्त को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाना।
यह शक्ति असाधारण है और केवल उन्हीं मामलों में प्रयोग की जाती है जहाँ FIR या कार्यवाही का जारी रहना न्याय के विरुद्ध हो।
3. Prevention of Corruption Act, 1988 की धारा 7 का क्या प्रावधान है?
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 में यह प्रावधान है कि कोई भी सार्वजनिक सेवक यदि किसी अनुचित लाभ (Undue Advantage) की माँग करता है या लेता है, तो वह दंडनीय अपराध है। संशोधन 2018 के बाद “Undue Advantage” का अर्थ किसी भी प्रकार का वैध या अवैध लाभ हो सकता है। इस अपराध के लिए न्यूनतम 3 वर्ष और अधिकतम 7 वर्ष की सजा तथा जुर्माना हो सकता है। यदि FIR इस धारा के अंतर्गत दर्ज की गई है परंतु उसके लिए आवश्यक स्वीकृति प्राप्त नहीं है, तो वह अवैध हो सकती है।
4. धारा 17A PC Act का महत्व क्या है?
2018 के संशोधन के बाद भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में धारा 17A जोड़ी गई। इसके अनुसार, यदि कोई सार्वजनिक सेवक अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए कोई कार्य करता है, तो उसके विरुद्ध जाँच शुरू करने से पूर्व सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति लेना आवश्यक है। इसका उद्देश्य ईमानदार अधिकारियों को झूठे मामलों से बचाना है। यदि इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया हो, तो FIR और आगे की कार्यवाही अवैध मानी जा सकती है।
5. आपराधिक षड्यंत्र (Criminal Conspiracy) क्या है?
भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी आपराधिक षड्यंत्र को दंडनीय बनाती है। यदि दो या अधिक व्यक्ति किसी अवैध कार्य को करने के लिए आपसी समझौता करते हैं, तो यह आपराधिक षड्यंत्र कहलाता है। यह अपराध पूर्ण तब माना जाता है जब सहमति के बाद कोई कृत्य उसके लिए किया जाए। किंतु, केवल अनुमान या संदेह के आधार पर षड्यंत्र का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए ठोस साक्ष्यों की आवश्यकता होती है।
6. भजनलाल केस (1992) के सिद्धांत क्या हैं?
State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय है। इसमें सात परिस्थितियाँ बताई गईं जिनमें FIR रद्द की जा सकती है—
- जब FIR से कोई अपराध नहीं बनता।
- जब FIR असंभव या अविश्वसनीय हो।
- जब FIR दुर्भावना से दर्ज की गई हो।
- जब FIR केवल उत्पीड़न हेतु हो।
- जब FIR कानूनन अपराध की परिभाषा में न आती हो।
- जब FIR का आधार निराधार हो।
- जब न्याय के हित में कार्यवाही निरस्त करना आवश्यक हो।
7. FIR की क्वैशिंग और ट्रायल में बरी होने में क्या अंतर है?
FIR की क्वैशिंग प्रारंभिक स्तर पर होती है, जब न्यायालय यह देखता है कि दर्ज FIR में अपराध का कोई तत्व नहीं है या उसका उद्देश्य प्रताड़ना है। जबकि ट्रायल में बरी होना तब होता है जब पूर्ण सुनवाई और साक्ष्य के बाद आरोपी निर्दोष सिद्ध होता है। क्वैशिंग एक प्रारंभिक राहत है, जबकि बरी होना अंतिम निर्णय है।
8. FIR क्वैशिंग के लिए कौन-सा न्यायालय सक्षम है?
BNSS की धारा 528 के अंतर्गत केवल उच्च न्यायालय (High Court) को FIR क्वैश करने की शक्ति प्राप्त है। यह शक्ति “Inherent Power” कहलाती है। निचली अदालतें इस प्रकार की शक्ति का उपयोग नहीं कर सकतीं। अतः कोई भी व्यक्ति यदि FIR से पीड़ित है और वह निराधार है, तो उसे उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है।
9. FIR क्वैशिंग में मौलिक अधिकारों की क्या भूमिका है?
FIR की क्वैशिंग सीधे तौर पर अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) तथा अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) से जुड़ी है। यदि FIR झूठी या दुर्भावनापूर्ण है, तो वह आरोपी की स्वतंत्रता का हनन करती है। उच्च न्यायालय, मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए FIR को निरस्त कर सकता है।
10. न्यायालय क्वैशिंग करते समय किन बातों पर विचार करता है?
उच्च न्यायालय FIR क्वैश करते समय निम्न बातों पर विचार करता है—
- क्या FIR से कोई प्रथम दृष्टया अपराध सिद्ध होता है?
- क्या FIR दुर्भावना या प्रतिशोधवश दर्ज की गई है?
- क्या FIR कानूनन अपराध की परिभाषा में आती है?
- क्या FIR जारी रहने से न्याय का हनन होगा?
- क्या FIR दर्ज करने से पहले आवश्यक स्वीकृति ली गई थी?
यदि इन बिंदुओं पर FIR असफल होती है, तो न्यायालय उसे निरस्त कर सकता है।