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“एफआईआर में आरोपी का नाम न होना, जबकि पहचान मौजूद हो — यह अभियोजन की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न उठाता है: साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रयोग”

🔹 “एफआईआर में आरोपी का नाम न होना, जबकि पहचान मौजूद हो — यह अभियोजन की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न उठाता है: साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रयोग”


प्रस्तावना

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जो किसी अपराध की प्रारंभिक सूचना के रूप में पुलिस को दी जाती है। यह न केवल जांच की दिशा तय करती है, बल्कि अभियोजन (prosecution) की विश्वसनीयता का भी आधार बनती है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि यदि किसी आरोपी का नाम एफआईआर में दर्ज नहीं किया गया है — जबकि सूचनाकर्ता आरोपी को भलीभांति जानता था — तो यह एक “material contradiction” (सार्थक विरोधाभास) माना जाएगा जो अभियोजन की साख पर गहरा असर डालता है।

न्यायालय ने इस संदर्भ में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act) की धारा 11 का प्रयोग करते हुए यह कहा कि ऐसे omissions (छूट या नाम का न होना) अभियोजन की कहानी की विश्वसनीयता को कमजोर कर देते हैं।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला एक हिंसक झगड़े और हत्या के आरोप से जुड़ा था, जिसमें प्राथमिकी (FIR) में केवल कुछ व्यक्तियों के नाम दर्ज थे।
बाद में, गवाहों ने बयान दिया कि घटनास्थल पर अन्य आरोपी भी मौजूद थे, जिनके नाम एफआईआर में नहीं थे, हालांकि शिकायतकर्ता उन्हें जानता था।

ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने इन आरोपियों को साक्ष्यों के आधार पर दोषी ठहराया। परंतु, सुप्रीम कोर्ट में अपील के दौरान यह तर्क दिया गया कि जब शिकायतकर्ता शुरू से ही इन आरोपियों को जानता था, फिर भी उनका नाम एफआईआर में नहीं लिया गया, तो बाद में उनके खिलाफ बयान देना अभियोजन के झूठे और मनगढ़ंत होने का संकेत है।


मुख्य मुद्दा (Key Issue)

क्या एफआईआर में आरोपी का नाम न होना, जबकि शिकायतकर्ता आरोपी को पहचानता था, अभियोजन की विश्वसनीयता को प्रभावित करता है?
क्या अदालत साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 के तहत इसे एक प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) मान सकती है जो अभियोजन की कहानी पर संदेह उत्पन्न करता है?


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

पीठ: जस्टिस बी. आर. गवई और जस्टिस एस. डी. कुलकर्णी

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि —

“जब शिकायतकर्ता आरोपी को पहले से जानता है, परंतु उसका नाम एफआईआर में शामिल नहीं करता, तो यह एक material omission है, जो अभियोजन की कहानी को संदेहास्पद बनाता है।”

अदालत ने माना कि एफआईआर की सटीकता और स्वाभाविकता (spontaneity) अभियोजन की विश्वसनीयता का मूल आधार होती है।
यदि इसमें जानबूझकर किसी का नाम छोड़ा गया है, तो यह इस बात का संकेत है कि या तो सूचना देने वाले के पास उस समय घटना की सटीक जानकारी नहीं थी, या बाद में कथा में परिवर्तन किया गया।


धारा 11, भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Section 11, Evidence Act) का प्रयोग

धारा 11 कहती है:

“ऐसे तथ्य जो किसी प्रासंगिक या महत्वपूर्ण तथ्य को असंभव या अत्यधिक असंभाव्य बना दें, वे भी प्रासंगिक होंगे।”

इस प्रावधान का प्रयोग करते हुए अदालत ने कहा —
एफआईआर में नाम न होना ऐसा तथ्य है जो अभियोजन की कहानी (कि आरोपी घटना में शामिल था) को असंभाव्य (improbable) बनाता है।
अर्थात, यह omission अभियोजन के संस्करण पर गंभीर संदेह डालता है।


न्यायालय का विश्लेषण

  1. एफआईआर का उद्देश्य:
    एफआईआर का उद्देश्य अपराध की प्राथमिक जानकारी देना है, ताकि पुलिस जांच शुरू कर सके। यदि शिकायतकर्ता आरोपी को जानता है, तो उसका नाम न लेना संदिग्ध है।
  2. ओमिशन का प्रभाव:
    जब बाद में बयान दिए जाते हैं जिनमें पहले से छूटे हुए नाम जोड़े जाते हैं, तो यह अभियोजन की विश्वसनीयता को कमजोर करता है।
  3. प्राकृतिक व्यवहार का परीक्षण (Test of Natural Conduct):
    यदि कोई व्यक्ति अपने परिचित हमलावर का नाम नहीं बताता, तो यह सामान्य मानव व्यवहार के विपरीत है।
  4. देरी और हेराफेरी की संभावना:
    नाम न लेने से यह भी संकेत मिलता है कि जांच के दौरान गवाहों के बयान प्रभावित या गढ़े जा सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष

अदालत ने कहा:

“एफआईआर में नाम न होना, जबकि सूचनाकर्ता आरोपी से परिचित था, अभियोजन के पूरे संस्करण को अविश्वसनीय बनाता है। इस omission को हल्के में नहीं लिया जा सकता।”

इस आधार पर, अदालत ने उन आरोपियों की सजा रद्द कर दी जिनके नाम एफआईआर में नहीं थे और कहा कि अभियोजन यह साबित नहीं कर पाया कि वे घटना में शामिल थे।


प्रमुख कानूनी सिद्धांत (Legal Principles Established)

  1. एफआईआर की प्रामाणिकता (Authenticity of FIR):
    एफआईआर में दिए गए नाम और विवरण अभियोजन की विश्वसनीयता तय करते हैं।
  2. ओमिशन एक Contradiction है:
    जब आरोपी का नाम जानबूझकर नहीं लिया जाता, तो यह “contradiction” या “material discrepancy” माना जाएगा।
  3. साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 का दायरा:
    कोई भी ऐसा तथ्य जो अभियोजन के दावे को असंभव या असंभाव्य साबित करे, वह प्रासंगिक है।
  4. गवाहों की विश्वसनीयता पर असर:
    ऐसे मामलों में गवाहों के बाद के बयान संदिग्ध माने जाएंगे, क्योंकि वे घटना के बाद बनाए गए प्रतीत होते हैं।

महत्वपूर्ण नज़ीरें (Important Precedents)

  1. Thulia Kali v. State of Tamil Nadu (1972 AIR 501, SC):
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि FIR में विलंब या जानबूझकर omissions अभियोजन की कहानी को अविश्वसनीय बनाते हैं।
  2. State of UP v. Naresh (2011) 4 SCC 324:
    यदि FIR में आरोपी का नाम नहीं है और बाद में उसे शामिल किया गया, तो ऐसे गवाहों के बयान पर संदेह रहेगा।
  3. Raghbir Singh v. State of Haryana (2016) 4 SCC 583:
    कोर्ट ने कहा कि omission of name of accused despite familiarity is a vital contradiction.

साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 का व्यावहारिक महत्व

यह धारा अभियोजन या बचाव, दोनों को यह अवसर देती है कि वे यह दिखा सकें कि कोई तथ्य —

  • अभियोजन की कहानी को असंभव बनाता है, या
  • किसी घटना के होने की संभावना पर प्रश्न उठाता है।

इस मामले में, एफआईआर में नाम का अभाव ऐसा तथ्य था जो अभियोजन की कहानी को असंभाव्य बना रहा था। इसलिए यह प्रासंगिक था।


निष्कर्ष

इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि एफआईआर में सटीकता और तत्परता (accuracy and promptness) अभियोजन की सफलता की कुंजी है।
यदि किसी आरोपी का नाम जानबूझकर छोड़ा गया है, तो अदालत इसे अभियोजन की कहानी में झोल मान सकती है।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 11 ऐसे मामलों में अभियुक्त को न्याय दिलाने का एक प्रभावी साधन बनती है, क्योंकि यह अदालत को अभियोजन की कहानी की संभाव्यता का मूल्यांकन करने की अनुमति देती है।


न्यायिक संदेश

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से यह सिद्धांत स्थापित हुआ कि —

“एफआईआर में नाम न होना, जबकि पहचान मौजूद थी, अभियोजन की विश्वसनीयता पर गहरा प्रश्नचिह्न लगाता है और आरोपी को दोषमुक्त करने का आधार बन सकता है।”

यह फैसला भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण दिशा प्रदान करता है — कि “सच्चाई केवल साक्ष्य में नहीं, बल्कि उस साक्ष्य की स्वाभाविकता और विश्वसनीयता में निहित है।”