“एफआईआर दर्ज कराने के लिए धारा 154(3) का पालन आवश्यक नहीं: सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शी निर्णय — धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट का आदेश स्वतः वैध”

शीर्षक:
“एफआईआर दर्ज कराने के लिए धारा 154(3) का पालन आवश्यक नहीं: सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शी निर्णय — धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट का आदेश स्वतः वैध”


भूमिका:
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में प्राथमिकी (FIR) का पंजीकरण एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। कई बार पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज न करने पर पीड़ित व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 156(3) सीआरपीसी के अंतर्गत निर्देश की मांग करता है। परंतु, क्या मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए आदेश केवल इस आधार पर अमान्य ठहराए जा सकते हैं कि शिकायतकर्ता ने पहले धारा 154(3) के अंतर्गत पुलिस अधीक्षक से शिकायत नहीं की थी?
सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का उत्तर देते हुए स्पष्ट कर दिया है कि मजिस्ट्रेट का आदेश केवल इस तकनीकी आधार पर अवैध नहीं ठहराया जा सकता। यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय प्रक्रिया में पीड़ितों की पहुंच को सरल और अधिक प्रभावी बनाता है।


मामले की पृष्ठभूमि:

  • एक शिकायतकर्ता ने मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 156(3) के तहत अर्जी लगाई थी कि पुलिस संबंधित अपराध में एफआईआर दर्ज करे।
  • मजिस्ट्रेट ने शिकायत की गंभीरता देखते हुए एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दे दिया।
  • उच्च न्यायालय में इस आदेश को चुनौती दी गई, यह तर्क देते हुए कि शिकायतकर्ता ने पहले धारा 154(3) (पुलिस अधीक्षक से शिकायत) का सहारा नहीं लिया था, जो कि आवश्यक माना गया।
  • मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां इस कानूनी प्रश्न पर गंभीर विचार हुआ कि क्या धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट का आदेश इसलिए अमान्य हो सकता है क्योंकि शिकायतकर्ता ने पहले धारा 154(3) का अनुसरण नहीं किया?

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि:

  1. मजिस्ट्रेट के पास धारा 156(3) CrPC के तहत यह शक्ति है कि वह किसी संज्ञेय अपराध की जांच के लिए पुलिस को निर्देश दे।
  2. यह शक्ति स्वतंत्र और विवेकाधीन (discretionary) है, और इसे सीमित नहीं किया जा सकता कि पहले शिकायतकर्ता ने धारा 154(3) का पालन किया या नहीं।
  3. कोर्ट ने कहा कि –

    “यदि मजिस्ट्रेट को प्रथम दृष्टया कोई संज्ञेय अपराध प्रतीत होता है, तो वह धारा 156(3) के तहत पुलिस को निर्देश दे सकता है, भले ही शिकायतकर्ता ने 154(3) की प्रक्रिया का पालन नहीं किया हो।”

  4. शिकायतकर्ता को सभी वैकल्पिक उपायों का पालन करना आवश्यक नहीं है, खासकर जब न्यायालय के समक्ष प्रत्यक्ष न्यायिक उपाय उपलब्ध हो।
  5. न्यायालय का मूल उद्देश्य न्याय की प्राप्ति है, न कि शिकायतकर्ता को तकनीकी प्रक्रियाओं के जाल में उलझाकर उसे उसका अधिकार वंचित करना।

प्रासंगिक विधिक प्रावधानों का विश्लेषण:

  • धारा 154(1) CrPC: पुलिस थाने में एफआईआर दर्ज करने का मूल प्रावधान।
  • धारा 154(3) CrPC: यदि थाना एफआईआर दर्ज नहीं करता, तो पुलिस अधीक्षक से शिकायत की जा सकती है।
  • धारा 156(3) CrPC: मजिस्ट्रेट को अधिकार है कि वह पुलिस को संज्ञेय अपराधों की जांच हेतु निर्देश दे।
  • सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या:
    • 156(3) CrPC में किसी पूर्व शर्त (जैसे 154(3)) की बाध्यता नहीं है।
    • यह धारा पीड़ित को सीधा न्यायिक उपचार उपलब्ध कराती है।

निर्णय का महत्व:

  • यह निर्णय पीड़ितों के लिए न्याय तक सीधी पहुंच को सरल बनाता है
  • पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने में टालमटोल की प्रवृत्ति के विरुद्ध एक सशक्त समाधान प्रदान करता है।
  • यह स्पष्ट करता है कि न्यायिक शक्तियाँ तकनीकी औपचारिकताओं से बाधित नहीं होनी चाहिए
  • न्यायालय का विवेक प्राथमिक है, न कि प्रक्रियात्मक सीमाएं।

न्याय की दिशा में एक सकारात्मक कदम:
यह फैसला न केवल विधिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह वंचित वर्गों, महिलाओं, सामाजिक उत्पीड़न का शिकार लोगों के लिए एक आशा की किरण है, जो अक्सर पुलिस के माध्यम से न्याय नहीं प्राप्त कर पाते।


निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल न्यायिक विवेक की स्वतंत्रता को सुदृढ़ करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्याय तकनीकी पेंचों में नहीं, बल्कि उद्देश्यपूर्ण निर्णयों में निहित है। यह फैसला देश भर की अदालतों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत स्थापित करता है – कि मजिस्ट्रेट न्याय की आत्मा को समझें, प्रक्रिया की जटिलता में न उलझें।