“एडवोकेट के अधिकारों पर केरल हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: पुलिस द्वारा अधिवक्ता को नोटिस जारी करना अवैध”

लेख शीर्षक:
“एडवोकेट के अधिकारों पर केरल हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: पुलिस द्वारा अधिवक्ता को नोटिस जारी करना अवैध”
(AJIKUMAR K.K बनाम राज्य केरल व अन्य, WP(Crl)-363-2025)


परिचय:
केरल उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में स्पष्ट किया कि पुलिस द्वारा भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita), 2023 की धारा 35(3) के तहत किसी अधिवक्ता को, उसकी व्यावसायिक भूमिका में, नोटिस जारी करना पूरी तरह अवैध और अधिकारों का उल्लंघन है। यह निर्णय भारत में अधिवक्ताओं के पेशेवर अधिकारों और गोपनीयता की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।


मामले का पृष्ठभूमि:
इस याचिका में याचिकाकर्ता अधिवक्ता अजीकुमार के.के. ने शिकायत दर्ज की कि पुलिस ने उन्हें एक आपराधिक मामले में उनके मुवक्किल के संदर्भ में पूछताछ हेतु समन भेजा था, जो कि उनके अधिवक्ता पेशेवर अधिकारों और गोपनीयता का उल्लंघन है। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि एक अधिवक्ता को उसकी पेशेवर भूमिका में जांच के लिए बुलाना न केवल कानूनी रूप से गलत है, बल्कि न्यायिक सिद्धांतों के भी विपरीत है।


कोर्ट का निर्णय:
केरल उच्च न्यायालय ने इस याचिका को स्वीकार करते हुए कहा कि:

  1. धारा 35(3) BNSS के अंतर्गत पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी अधिवक्ता को, जो केवल अपने मुवक्किल की ओर से पेशेवर सेवा प्रदान कर रहा हो, समन करके पूछताछ के लिए बुला सके।
  2. अधिवक्ता को मजबूर नहीं किया जा सकता कि वह अपने मुवक्किल द्वारा दी गई गोपनीय जानकारी या संचार को उजागर करे। यह एडवोकेट-क्लाइंट प्रिविलेज (Advocate-Client Privilege) का उल्लंघन होगा, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत संरक्षित है।
  3. पुलिस की यह कार्रवाई अधिवक्ता के व्यवसाय करने के मूल अधिकार का हनन है, जो संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत संरक्षित है।

विधिक विश्लेषण:
इस फैसले में अदालत ने न केवल BNSS की व्याख्या की, बल्कि भारत के कानूनी तंत्र में वकीलों की भूमिका को भी स्पष्ट किया। अधिवक्ता और मुवक्किल के बीच गोपनीयता का संबंध न्याय का मूल तत्व है। इस फैसले ने यह दोहराया कि किसी अधिवक्ता को इस तरह के जांच कार्यों में शामिल करना, उसके नैतिक और पेशेवर कर्तव्यों के विरुद्ध है।

यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि वकील न तो राज्य का गवाह होता है और न ही आरोपी के खिलाफ साधन। उसकी भूमिका पूरी तरह से कानूनी सहायता प्रदान करना होती है।


महत्व:

  • यह निर्णय भारत के वकीलों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक उदाहरणात्मक दृष्टांत बन गया है।
  • यह पुलिस की शक्तियों की सीमाओं को परिभाषित करता है।
  • यह अधिवक्ता पेशे की गरिमा और स्वतंत्रता को बनाए रखने की दिशा में न्यायपालिका की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

निष्कर्ष:
AJIKUMAR K.K बनाम राज्य केरल मामले में केरल उच्च न्यायालय का निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में एक संवैधानिक और नैतिक सिद्धांत की पुनःस्थापना है, जहाँ अधिवक्ता की भूमिका और अधिकारों को पूर्ण सम्मान और संरक्षण प्राप्त है। यह निर्णय इस बात का प्रमाण है कि पेशेवर गोपनीयता, अधिवक्ता की स्वतंत्रता और न्याय की निष्पक्ष प्रक्रिया हमारे लोकतंत्र के अभिन्न अंग हैं।