“एक-तिहाई सीमा पर सुप्रीम कोर्ट की परीक्षा: Sheheen Pulikkal Veettil व. Union of India में मुस्लिम वसीयत-अधिकार पर संवैधानिक चुनौती”
प्रस्तावना
भारतीय न्याय व्यवस्था में धर्म और संविधान के बीच तनाववाला रिश्ता वर्षों से विद्यमान रहा है — विशेषकर व्यक्तिगत कानून (Personal Law) के विषय में। इन कानूनों में धार्मिक सिद्धांत और सामाजिक-न्याय-समस्याएँ अक्सर टकराती हैं। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट एक महत्वपूर्ण संवैधानिक समीक्षा करने जा रही है, जिसमें मुस्लिम वसीयत (Wasiyat) पर लागू की जाने वाली “एक-तिहाई (1/3) सीमा” की वैधता पर प्रश्न खड़ा किया गया है। Sheheen Pulikkal Veettil v. Union of India (W.P. (C) No. 762/2025) नामक याचिका इस विषय की अगुआ बनी है।
यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि सर्वोच्च न्यायालय इस सीमाबद्धता को निरस्त कर दे, तो मुस्लिम समुदाय के वसीयत-अधिकारों में बड़ा बदलाव आएगा। इसके साथ ही, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और धार्मिक स्वायत्तता जैसे संवैधानिक सिद्धांतों का भी परीक्षण होगा। इस लेख में हम विस्तार से देखेंगे:
- इस मामले की factual एवं प्रक्रिया पृष्ठभूमि
- वर्तमान वैधानिक एवं न्यायशास्त्रीय स्थिति (मुस्लिम वसीयत कानून)
- याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत तर्क
- केंद्र सरकार तथा विरोधी पक्षों के संभावित तर्क
- संवैधानिक प्रश्न और न्यायालय के समक्ष चुनौतियाँ
- न्यायालय की संभावित दृष्टि एवं परिणाम
- सामाजिक-नैतिक और राजनीतिक आयाम
- निष्कर्ष एवं टिप्पणी
1. तथ्यात्मक एवं प्रक्रिया पृष्ठभूमि
1.1 मामला और याचिका
- याचिका का नाम है Sheheen Pulikkal Veettil v. Union of India, पटल संख्या W.P. (C) No. 762/2025।
- याचिकाकर्ता एक मुस्लिम नागरिक है (वकील, विदेश में भी अभ्यास करती हैं) जिसने सुप्रीम कोर्ट में दायर किया है कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून की परंपरागत वादियों के अनुसार मुस्लिमों को अपनी सम्पत्ति का एक-तिहाई से अधिक हिस्सा वसीयत द्वारा देने पर रोक संविधान के अनुरूप नहीं है।
- याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया है कि भारतीय कानून (विशेष रूप से Indian Succession Act, 1925) में मुस्लिमों को वसीयत संबंधी अधिकारों से बाहर रखा जाना असंवैधानिक है।
- न्यायालय ने इस याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है और इसे एक समानार्थक याचिकाओं (जैसे Tarsem v. Dharma & Anr.) के साथ टैग (संलग्न) कर लिया है।
- न्यायमूर्ति Pamidighantam Sri Narasimha और न्यायमूर्ति Atul S. Chandurkar की बेंच इस याचिका को देख रही है।
इस प्रकार, यह मामला अभी सुनवाई प्रारंभिक चरण में है, और संवैधानिक सहमति, तर्क, प्रतिवाद, और.Order (न्यायालय द्वारा निर्देश) जारी की जा सकती है।
2. भारतीय मुस्लिम वसीयत कानून — वैधानिक एवं न्यायशास्त्रीय पृष्ठभूमि
किसी भी संवैधानिक समीक्षा में यह जानना आवश्यक है कि वर्तमान कानून और न्यायशास्त्र ने इस विषय पर क्या स्थिति बनाई है।
2.1 Indian Succession Act, 1925 & मुस्लिम कानून का संबंध
- Indian Succession Act, 1925, भारत में वसीयत (Will), उत्तराधिकार (intestate succession) और वसीयत/उत्तराधिकार विधियों को नियंत्रित करने वाला विधान है।
- लेकिन इस अधिनियम की धारा 58 विशेष रूप से मुसलमानों को testamentary succession (वसीयत द्वारा सम्पत्ति का हस्तांतरण) के दायरे से बाहर रखती है। अर्थात्, मुसलमानों पर यह अधिनियम लागू नहीं होगा।
- इसी तरह, धारा 23 और अन्य प्रावधानों के कारण मुसलमानों की intestate (विरासत) और वसीयताधिकार दोनों मामलों में इस अधिनियम की कार्यक्षमता सीमित होती है।
- इस प्रकार, मुस्लिमों पर वसीयत और उत्तराधिकार (succession) के मामलों में भारतीय विधि से बाहर रखा गया है और उन्हें उनके व्यक्तिगत कानून (Muslim Personal Law / Shariat) पर निर्भर माना गया है।
2.2 मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में वसीयत (Wasiyat) — परंपरा एवं सीमाएँ
- इस्लामी (मुस्लिम) कानून में वसीयत (अ्रबी: “वसीयत/Wasiyat”) एक स्वीकार्य विधि है जिससे कोई मुसलमान अपनी संपत्ति का हिस्सा अपने मरने के बाद किसी को देने का निर्देश कर सकता है।
- परंतु पारंपरिक मुस्लिम न्यायशास्त्र (विशेषकर सुन्नी विधानों में) यह माना गया है कि वसीयत द्वारा एक मुसलमान केवल अपनी संपत्ति का एक-तिहाई (1/3) तक ही किसी को दे सकता है, बशर्ते कि यह वसीयत कर्ज और दफ़न-खर्च निकालने के बाद की जाए। अन्य हिस्से का वितरण “फरा’द (Faraid)”, यानी नियत वारिसों (legal heirs) में इस्लामी नियमों के अनुसार होना चाहिए।
- और अधिक जटिलता यह है कि यदि वसीयत द्वारा अधिक देने की इच्छा हो, तो यह तभी मान्य हो सकती है यदि सभी वारिसों की सहमति हो।
- इन सीमाओं का मूल आधार हदीस (Hadith) हैं, विशेषतः उस हदीस का उल्लेख, जिसमें एक sahabi (Sa’d ibn Abi Waqqas) ने अपनी संपत्ति का दो-तिहाई हिस्सा दान करने की इच्छा जताई और पैगंबर ﷺ ने उसे सीमित कर दिया कि “यह बहुत अधिक है, केवल एक-तिहाई रखो”।
- मुस्लिम न्यायशास्त्र में यह भी तर्क दिया जाता है कि यह सीमाबद्धता सामाजिक न्याय और परिवार संतुलन बनाए रखने के उद्देश्य से है — कि वारिसों को उनकी निश्चित हिस्सेदारी मिल सके।
- शिया मत (Shia school) में कुछ भिन्नताएँ पाई जाती हैं — उदाहरण स्वरूप, शिया कानून में वसीयत को अधिक लचीला स्वीकार किया गया है और कभी-कभी वसीयत के द्वारा वारिसों को देने की अनुमति मिलती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट व अधीनस्थ न्यायालयों की अधिकांश व्याख्या सुन्नी दृष्टिकोण पर आधारित रही है।
2.3 न्यायालयों की पूर्व निर्णय-राय
- भारत की न्यायालयरी प्रक्रिया में, सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने मुस्लिम वसीयत कानून पर कई निर्णय दिए हैं, जिनमें एक-तिहाई सीमा को मान्यता दी है।
- ये न्यायालयों ने यह मान लिया है कि चूंकि वसीयत विधि मुस्लिम समुदाय पर लागू नहीं है, इसलिए व्यक्तिगत कानून के अनुसार ही न्याय करना होगा।
- इधर-उधर कई उच्च न्यायालयों ने यह निर्णय दिया कि यदि कोई वसीयत नियमों का उल्लंघन करती है (उदाहरण: वसीयत अधिक हिस्सा देने की हो), तो वह अवैध हो सकती है।
परंतु इस पूरे तर्क ढाँचे पर यह प्रश्न भी उठा है कि क्या इस परंपरागत सीमाबद्धता वास्तव में धर्मग्रंथों, न्यायशास्त्र और संविधान के अनुरूप है। यही प्रश्न अब सुप्रीम कोर्ट के समक्ष है।
3. याचिकाकर्ता (Sheheen) के तर्क
याचिकाकर्ता ने इस लिमिटेशन (एक-तिहाई) को संवैधानिक और धार्मिक दोनों दृष्टिकोणों से चुनौती दी है। निम्नलिखित महत्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत किए गए हैं:
3.1 संवैधानिक असंगति — समानता और स्वतंत्रता का उल्लंघन
- याचिकाकर्ता का तर्क है कि मुस्लिमों को वसीयत संबंधी अधिक स्वायत्तता न देना, और उन्हें Indian Succession Act से बाहर रखना, Article 14 (समानता के सामने कानून) के सिद्धांत के खिलाफ है। वस्तुत: यह मुस्लिमों को एक अलग दर्जा देता है।
- इसके अतिरिक्त, कहा गया है कि यह स्थिति Article 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) और Article 25 (धार्मिक आज़ादी) का उल्लंघन करती है। क्योंकि वसीयत करना (Wasiyat) मुस्लिम धर्मशास्त्र की एक धार्मिक परंपरा है, और इसे सीमित करना धार्मिक स्वतंत्रता में अनावश्यक हस्तक्षेप है।
- याचिकाकर्ता यह तर्क देता है कि इस सीमाबद्धता से एक व्यक्ति की वसीयत-स्वतंत्रता (testamentary autonomy) कम हो जाती है, जो किसी व्यक्ति के निजी अधिकार का हिस्सा हो सकता है।
- इस तरह, यह कहा गया है कि जब संविधान सभी नागरिकों को समान हक़ देता है, तब किसी समुदाय को धर्मशास्त्र आधारित बाधाओं से कम हक देना न्याय की दृष्टि से अनुचित है।
3.2 धार्मिक (इस्लामी) तर्क — कुरआन व हदीस की व्याख्या
- याचिकाकर्ता तर्क देते हैं कि कुरआन स्वयं वसीयत करने का आदेश देता है — “मिरास (विरासत) और वसीयत” दोनों की व्यवस्था है — और इसलिए मानव-संयोजित सीमा (हदीस-आधारित व्याख्या) उस आदेश पर वरीय नहीं हो सकती।
- वे यह दावा करते हैं कि हदीस जिस संदर्भ में “एक-तिहाई” का आदेश देती है, वह एक व्यक्तिगत सलाह थी (Sa’d ibn Abi Waqqas की विशेष स्थिति) — और इसे सार्वभौमिक नियम नहीं बनाया जाना चाहिए।
- यदि कुरआन और हदीस में कोई टकराव हो, तो कुरआन सर्वोच्च माना जाना चाहिए, क्योंकि वह प्रत्यक्ष शब्द है। और इसलिए, यदि हदीस एक इतनी कठोर सीमा लगाता है कि वह न्याय या व्यक्तिगत इच्छा के अनुरूप न हो, तो उस हदीस की व्याख्या सीमित करनी चाहिए। यह दृष्टिकोण “नाजूल-आयत/नाज़िल तादिल” (contextual interpretation) जैसा ही है।
- याचिकाकर्ता यह तर्क देते हैं कि वर्तमान सीमाबद्धता व्यावहारिक रूप से मुस्लिम पिता/माता को यह करने से रोकती है कि वे अपनी संतान (पुत्र/पुत्री) को समान रूप से वसीयत करके देना चाहें, या अपनी पत्नी या निर्भर परिवार सदस्यों को पर्याप्त हिस्सा देना चाहें। इस तरह यह एक असममित और अनुचित परिणाम देती है।
- वे न्यायालय से यह आदेश मांगते हैं कि मुस्लिमों को वसीयत करने का अधिकार दिया जाए जैसे अन्य नागरिकों को है (यानि किसी धार्मिक बाधा के बिना) और कि Indian Succession Act को उन मुस्लिमों पर भी लागू किया जाए जो चाहें।
3.3 भावी निर्देश और लचीलापन
- याचिकाकर्ता ने यह भी अनुरोध किया है कि यदि न्यायालय पूर्ण रूप से एक-तिहाई सीमा हटाने से हिचके, तो न्यूनतम निर्देश दें कि वसीयत धारकों की इच्छा को प्राथमिकता दी जाए और सीमाबद्धता को केवल तभी लागू किया जाए जब स्पष्ट धार्मिक बाधा हो।
- इसके अतिरिक्त, यह कहा गया है कि कानून को इस तरह विकसित किया जाए कि यदि कोई मुस्लिम व्यक्ति चाहें कि वह शरिया के बजाय Indian Succession Act के अंतर्गत आए, तो वह उसका विकल्प चुन सके। (अन्य समान याचिकाओं की तरह)
4. केंद्र सरकार / विरोधी पक्षों के संभावित तर्क
न्यायालय में जब किसी संवैधानिक चुनौती पर विचार होता है, तो राज्य पक्ष और विरोधी पक्ष विभिन्न प्रकार के तर्क प्रस्तुत करते हैं। इस मामले में भी निम्नलिखित तर्क संभावित हैं:
4.1 धार्मिक संरक्षण एवं पारंपरिक संतुलन
- राज्य पक्ष यह तर्क दे सकता है कि मुस्लिम वसीयत कानून व्यक्तिगत कानून (Personal Law) का हिस्सा है, और धर्म-स्वायत्तता (religious autonomy) के अंतर्गत इसे संरक्षित किया जाना चाहिए।
- यह तर्क दिया जा सकता है कि एक-तिहाई सीमा मुस्लिम न्यायशास्त्र की एक स्वीकार्य व्याख्या है, जो सामाजिक न्याय, पारिवारिक संरचना और वारिसों के हितों को संतुलित करती है। इसे हटाना धार्मिक व्यवस्था में हस्तक्षेप हो सकता है।
- कहा जा सकता है कि न्यायालय को धार्मिक कानूनों के परस्पर संबंधों और धार्मीक प्रतिष्ठा का सम्मान करना चाहिए, और अन्य धर्मों की तरह संविधान का हस्तक्षेप सीमित होना चाहिए।
4.2 न्यायिक सुचिता, विधि संश्लेषण और संतुलन
- राज्य पक्ष तर्क दे सकता है कि न्यायालय को सुधारवादी भूमिका नहीं निभानी चाहिए — यदि कोई परिवर्तन करना हो, तो वह विधायिका का दायित्व है, न कि न्यायालय का।
- यह तर्क हो सकता है कि एक-तिहाई सीमा हटाने से नए विवाद और दावों की जटिलता बढ़ सकती है, जिससे परिसमापन (settlement) कठिन हो सकती है।
- सरकार यह भी कह सकती है कि धार्मिक न्यायशास्त्रों के भीतर अधिक विस्तृत विवेचन, अधिवृत्ति (jurisprudential) निर्णय और समाज-स्वीकृति की आवश्यकता है, न कि एक संवैधानिक समीक्षा द्वारा अचानक परिवर्तन।
4.3 समानता की सीमाएँ (शिक्षित भिन्नता)
- विरोधी पक्ष यह तर्क दे सकते हैं कि इस्लाम और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में अलग धारा (classification) करना Article 14 की दृष्टि से वैध वर्गीकरण हो सकता है, क्योंकि यह वर्ग (मुस्लिम) धार्मिक आधार पर एक संबंधित भिन्नता (religious classification) है, और यदि न्यायोचित कारण हो, तो यह सीमित किया जा सकता है।
- कहा जाएगा कि इस विशेष संदर्भ में यह वर्गीकरण धार्मिक संतुलन बनाए रखने, पारिवारिक व्यवस्था की रक्षा और समुदाय के आंतरिक मामलों को सुरक्षित रखने के लिए किया गया है।
4.4 तर्कों की सीमाएँ
- राज्य पक्ष यह मानने को तैयार नहीं हो सकते कि वसीयत करना सभी मुस्लिमों के लिए अनिवार्य धार्मिक दायित्व है — वे कह सकते हैं कि यह धार्मिक अभिपादन है, लेकिन इसे जबरदस्ती सीमित करना आवश्यक नहीं।
- वे यह तर्क दे सकते हैं कि यदि कोई मुसलमान चाहें कि वह अपने वसीयत में पारंपरिक सीमाएँ न माने, तो वह पहले ही कुछ सीमित विधियों से ऐसा कर सकता है (उदाहरण स्वरूप, वारिसों की स्वीकृति लेना)।
इन तर्कों का सामना याचिकाकर्ता और अन्य पक्षों द्वारा किया जाना है। सुप्रीम कोर्ट को इन तर्कों को परखते हुए संविधान और धर्मशास्त्र के बीच संतुलन स्थापित करना होगा।
5. संवैधानिक प्रश्न एवं न्यायालय के समक्ष चुनौतियाँ
यह मामला कई संवैधानिक एवं विधिगत प्रश्न खड़े करता है। नीचे मुख्य प्रश्न और न्यायालय को सामना करना पड़ेगा उनकी चुनौतियाँ:
5.1 मुख्य संवैधानिक प्रश्न
- क्या एक-तिहाई सीमा (1/3 limit) पर मुस्लिम वसीयत करने पर रोक संविधान के अनुरूप है?
अर्थात्, क्या यह रोक Article 14, Article 15, Article 21, Article 25 आदि का उल्लंघन करती है? - क्या वसीयत करना (Wasiyat) मुस्लिम धार्मिक परम्परा का आवश्यक अंग है (essential religious practice)?
यदि हाँ, तो उस पर राज्य द्वारा प्रतिबंध लगाना Article 25 की दृष्टि से संवैधानिक रूप से संभव है या नहीं? - क्या किसी मुस्लिम को विशेष रूप से भारतीय वसीयत अधिनियम (Indian Succession Act) के दायरे में आने का विकल्प देना संविधान की दृष्टि से आवश्यक या वैध है?
यानी, क्या मुस्लिमों को “opt-in / opt-out” की आज़ादी होनी चाहिए? - धार्मिक कानून और धर्मग्रंथों (कुरआन व हदीस) के बीच किसी تضاد की स्थिति में न्यायालय को किस प्रकार हस्तक्षेप करना चाहिए?
विशेष रूप से, यदि हदीस व्याख्या धार्मिक सीमाबद्धता कहता हो और कुरआन अपेक्षा अधिक लचीलापन दे, तो न्यायालय क्या व्याख्या अपनाए? - धर्मस्वायत्तता (religious autonomy) एवं न्यायोचित सीमा (reasonable restriction) के बीच न्यायालय संतुलन कैसे बनाए?
5.2 न्यायालय की चुनौतियाँ
- धर्मशास्त्र (शरिया/इस्लामी विधि) के भीतर विभिन्न मत – सुन्नी, शिया, हनफी, मलिकी आदि। न्यायालय को किसी विशिष्ट मत को सर्वोपरि नहीं मानना चाहिए, बल्कि ऐसी व्याख्या ढूँढनी होगी जो संविधान अनुकूल हो।
- पारंपरिक न्यायशास्त्रों पर टिप्पणी करना तथा उन्हें संविधान से सामंजस्य करना एक संवेदनशील कार्य है, क्योंकि न्यायालय को धार्मिक समुदायों की भावनाओं का भी ख्याल रखना होगा।
- यदि रोक को हटाया जाता है, तो उस परिवर्तन का दायरा एवं सीमाएँ कैसे तय हों — उदाहरण स्वरूप, क्या पूर्व वसीयतों पर लागू किया जाए या केवल भावी मामलों पर?
- वसीयत विवादों और दावों की संख्या बढने का जोखिम — न्यायालय को प्रावधान देना होगा कि विवाद किस प्रकार निपटेंगे।
- न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि निर्णय बहुत व्यापक न हो कि वह अन्य व्यक्तिगत कानूनों के मूल सिद्धांतों को प्रभावित करे।
- विधायिका और न्यायपालिका के बीच भूमिकाओं की सीमा — न्यायालय को यह सावधानी रखनी होगी कि वह विधायिका की जगह न ले।
6. संभावित दृष्टि एवं परिणाम
न्यायालय इस याचिका में कई तरह के निष्कर्ष निकाल सकती है; नीचे कुछ संभावित दृष्टियाँ और उनके परिणाम दिए हैं:
6.1 पूरी तरह सीमा रद्द करना
- यदि सुप्रीम कोर्ट यह कह दे कि एक-तिहाई सीमा पूरी तरह असंवैधानिक है और मुस्लिम वसीयत धारकों को अपनी संपत्ति कितनी भी देनी हो दे सकती हैं (बशर्ते देनदारियों-बकाया व दफ़न खर्चों के बाद), तो यह एक क्रांतिकारी निर्णय होगा।
- इससे मुस्लिम व्यक्तियों को वसीयत संबंधी अधिक स्वायत्तता मिलेगी — वे अपने इच्छानुसार वसीयत कर सकेंगे, अपनी पत्नी, बच्चों या किसी अन्य व्यक्ति को चहेते हिस्से दे सकेंगे।
- यह निर्णय मुस्लिम व्यक्तिगत कानून की सीमाओं में बदलाव का मार्ग प्रशस्त करेगा और समानता के सिद्धांत को मजबूत करेगा।
- इसके साथ ही, वसीयत विवादों की संख्या बढ़ सकती है, जिससे न्यायालयों पर बोझ बढ़ेगा। इसलिए कोर्ट निर्देश दे सकती है प्रक्रियात्मक गाइडलाइन्स (वसीयत पंजीकरण, विवाद समाधान पद्धति, विवादों पर समयबद्ध निपटान इत्यादि)।
6.2 सीमित संशोधन / शर्तों के साथ
- न्यायालय यह कह सकती है कि वसीयत धारक को अधिक स्वतंत्रता होगी, लेकिन सीमाएँ एवं शर्तें हों — उदाहरण स्वरूप, यदि वारिसों की सहमति हो या किसी न्यायालयीय अनुमोदन हो।
- या यह कहा जा सकता है कि वसीयत धारक को न्यूनतम हिस्सा (say 1/3) देना अनिवार्य होगा, लेकिन अधिक देना संभव हो जब अन्य वारिसों की सहमति हो।
- इस दृष्टि से विचारशील संतुलन बनाए गा: मुस्लिम वसीयत धारकों को अधिक अधिकार, लेकिन वास्तुस्थित न्याय और पारिवारिक हित सुरक्षित रहेंगे।
6.3 प्रस्तावित “opt-in / opt-out” मॉडल
- न्यायालय यह निर्देश दे सकती है कि यदि कोई मुस्लिम व्यक्ति चाहें, तो वह Indian Succession Act, 1925 के दायरे में आ सके (वसीयत और उत्तराधिकार दोनों के लिए), बजाय यह कि उसे अनिवार्य रूप से शरिया कानून का पालन करना हो।
- इस विकल्प द्वारा, मुस्लिमों को अपनी धार्मिक मान्यताओं और व्यक्तिगत इच्छा के आधार पर व्यवस्था चुनने की स्वतंत्रता मिलेगी।
- इस तरह की व्यवस्था सभी व्यक्तियों को समान अवसर देती है, और धर्म-स्वायत्तता के सिद्धांत को संतुलित करती है।
6.4 सीमाएँ बनाए रखना (परंतु सुधार)
- न्यायालय यह भी विकल्प चुन सकती है कि वह एक-तिहाई सीमा को वैध रखे, लेकिन यह निर्देश दे कि वसीयत धारकों की इच्छा का अधिक सम्मान हो और विवादशून्य समाधान मार्ग तैयार किए जाएँ।
- संभव है कि न्यायालय कहे कि यदि वसीयत धारक विशेष स्थिति में हों (उदाहरण: निर्भर परिवार सदस्य, दिव्यांगता, सामाजिक ज़रूरत आदि), तो सीमा से अधिक हिस्सा वसीयत के रूप में दिया जा सके।
6.5 संभावित प्रभाव
- यदि वसीयताधिकार में अधिक स्वायत्तता मिली, यह मुस्लिम महिलाओं, विवाहिता पत्नियों और निर्भरताओं (dependents) के हितों में सुधार कर सकती है।
- सामाजिक न्याय दृष्टि से, यह निर्णय इस संदेश को मजबूत करेगा कि धर्मशास्त्र आधारित कानून संविधान द्वारा नियंत्रित हैं और उन्हें मानवाधिकारों और समानता के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए।
- इससे अन्य धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों पर भी समीक्षा की दिशा संभव है — उदाहरणस्वरूप, हिन्दू, ईसाई वसीयत एवं उत्तराधिकार कानूनों से न्यायालय तुलना कर सकता है।
- राजनीतिक दृष्टि से, यह कदम बहस छेड़ेगा कि क्या भारत में Uniform Civil Code लागू किया जाना चाहिए या व्यक्तिगत कानून ही बने रहने चाहिए।
- विधायिका को भी नए प्रावधान बनाने होंगे, यदि न्यायालय ऐसा निर्देश देती है कि वसीयत संबंधी प्रक्रिया और विवाद समाधान को सुव्यवस्थित किया जाए।
7. सामाजिक-नैतिक और राजनीतिक आयाम
इस तरह का संवैधानिक निर्णय केवल कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक परिणाम भी लाएगा। कुछ महत्वपूर्ण बिंदु:
7.1 धार्मिक विचारधारा और समुदाय विरोध
- मुस्लिम समुदाय के भीतर इस तरह के परिवर्तन को समर्थन और विरोध दोनों मिल सकते हैं। कुछ पारंपरिक धर्मगुरु और विद्वान यह कह सकते हैं कि यह इस्लाम की मूल शिक्षाओं को मिटाने की दिशा है।
- दूसरी ओर, अनेक आधुनिकतावादी मुसलमान इस बदलाव को स्वागतयोग्य देखेंगे क्योंकि यह महिला अधिकारों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देगा।
- न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसका निर्णय धार्मिक संघर्ष को उत्प्रेरित न करे, और संवेदनशीलता के साथ व्याख्या करे।
7.2 समानता एवं बहुलतावादी समाज
- भारत एक बहुधार्मिक और बहुलतावादी समाज है। यदि मुस्लिम वसीयत अधिकारों को अधिक स्वतंत्रता मिले, तो हिन्दू, ईसाई और अन्य समुदायों की वसीयत और उत्तराधिकार प्रथाओं से तुलनात्मक दबाव बनेगा।
- यह निर्णय बहुलतावाद (pluralism) की दिशा में एक महत्वपूर्ण संकेत हो सकता है कि धार्मिक कानून संविधान की अपेक्षाओं के अधीन होंगे।
7.3 विधायिका एवं सामाजिक स्वीकार्यता
- न्यायालय यदि निर्देश देती है कि विधायिका नए कानून बनाए, तो संसद को सक्रिय भूमिका लेनी होगी — नए प्रावधान, प्रक्रिया, पंजीकरण, विवाद निवारण इत्यादि स्थापित करना।
- सामाजिक शिक्षा और जागरूकता की बहुत आवश्यकता होगी ताकि लोग इस परिवर्तन को समझ सकें और विवादों की बाढ़ न हो।
7.4 महिला एवं कमजोर वर्गों के हित
- इस निर्णय से महिला वारिसों, पत्नियों, निर्भरताओं और पिछड़े वर्गों को अधिक सुरक्षा मिल सकती है। वे वसीयत द्वारा अपने हितों के अनुरूप हिस्सा प्राप्त कर सकेंगी।
- यह निर्णय लैंगिक समानता और न्याय के सिद्धांत को भी सुदृढ़ कर सकता है।
8. निष्कर्ष एवं टिप्पणी
Sheheen Pulikkal Veettil v. Union of India मामला भारतीय संवैधानिक और व्यक्तिगत कानून की एक महत्वपूर्ण श्रेणी को चुनौती देता है। यदि सुप्रीम कोर्ट इस एक-तिहाई सीमा को निरस्त या संशोधित करती है, तो यह मुस्लिम वसीयताधिकारों में एक बड़ा परिवर्तन लाएगा।
मेरी दृष्टि यह है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में संतुलित पथ अपनाएगी — यानी एक कट्टर परिवर्तन नहीं बल्कि एक व्यावहारिक संशोधन जो मुस्लिम वसीयताधिकारों को अधिक स्वतंंत्रता देगा, लेकिन पारिवारिक और न्याय व्यवस्था को स्थिर बनाए रखे।
यह निर्णय केवल मुस्लिम कानून खर्च नहीं होगा — यह पूरे भारत की न्याय व्यवस्था, धार्मिक-न्यायशास्त्र और संवैधानिक सिद्धांतों के बीच संतुलन पर एक परीक्षा होगी। यह दिखाएगा कि भारत की सर्वोच्च न्यायालय कैसे धर्म और कानून को एक साथ बुन सकती है।