IndianLawNotes.com

“उर्दू इसी मिट्टी की पैदाइश है — धर्म से नहीं, संस्कृति से जुड़ी भाषा: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला”

“उर्दू इसी मिट्टी की पैदाइश है — धर्म से नहीं, संस्कृति से जुड़ी भाषा: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला”

भूमिका

भारत की विविध भाषाएँ, बोलियाँ और संस्कृतियाँ उसकी पहचान हैं। यहाँ भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं बल्कि सामाजिक समरसता और साझा संस्कृति की जीवंत अभिव्यक्ति है। ऐसे देश में किसी भाषा को किसी विशेष धर्म से जोड़ना न केवल गलत है बल्कि भारतीय संविधान की आत्मा के भी विपरीत है। इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल 2025 में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसमें कहा गया — “उर्दू इसी मिट्टी की पैदाइश है, इसे मुस्लिम धर्म से जोड़ना गलत है।” यह फैसला भारतीय भाषाई परिदृश्य में समानता, समावेश और गंगा-जमुनी तहज़ीब की भावना को और सशक्त बनाता है।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला महाराष्ट्र के अकोला ज़िले के पाटुर नगरपालिका परिषद से जुड़ा था। वहाँ नगर परिषद के भवन पर बोर्ड पर दो भाषाएँ लिखी थीं — ऊपर मराठी में “Municipal Council, Patur” और नीचे उर्दू में उसका अनुवाद। एक याचिकाकर्ता ने इसका विरोध करते हुए कहा कि स्थानीय स्वशासन कानून के अनुसार, केवल मराठी ही महाराष्ट्र की “राज्य भाषा” है, और उर्दू का प्रयोग आधिकारिक तौर पर नहीं किया जा सकता।

मामला धीरे-धीरे उच्च न्यायालय से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा। अपीलकर्ता का तर्क था कि उर्दू का प्रयोग प्रशासनिक या सरकारी संकेतों पर नहीं किया जा सकता क्योंकि यह “राज्य की आधिकारिक भाषा” नहीं है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक दृष्टिकोण अपनाया और एक ऐतिहासिक निर्णय दिया जिसने न केवल इस विवाद को सुलझाया बल्कि भाषाई समानता पर भी नई रोशनी डाली।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और के. विनोद चंद्रन की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने यह निर्णय सुनाया। न्यायालय ने यह कहा कि —

“उर्दू भाषा को मुस्लिम धर्म से जोड़ना न केवल गलत बल्कि असंवैधानिक है। यह भाषा भारत की अपनी मिट्टी से उपजी है। उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप की गंगा-जमुनी संस्कृति का परिणाम है, किसी एक धर्म की नहीं।”

न्यायालय ने कहा कि “Language is not religion. Language is culture.” — अर्थात् भाषा धर्म नहीं होती, बल्कि संस्कृति की अभिव्यक्ति होती है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि उर्दू कोई विदेशी भाषा नहीं है, बल्कि यह यहीं भारत में विकसित हुई। यह दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद, भोपाल, आगरा, और दक्खन की गलियों से होकर निकली भाषा है — जिसने हिंदुस्तानी संस्कृति को शब्द दिए और साहित्य को नई ऊँचाइयाँ दीं।


संवैधानिक आधार

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में भारतीय संविधान की अनुच्छेद 29 और 30 का उल्लेख किया, जो भाषाई और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा और संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार देते हैं।
इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 351 में यह कहा गया है कि हिंदी के विकास में अन्य भारतीय भाषाओं — विशेष रूप से उर्दू — के तत्वों को समाहित करना चाहिए ताकि राष्ट्रीय एकता बनी रहे।

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (आधिकारिक भाषा) अधिनियम, 2022 केवल यह कहता है कि मराठी राज्य की आधिकारिक भाषा है, लेकिन यह किसी अन्य भाषा के प्रयोग पर प्रतिबंध नहीं लगाता। अतः नगर परिषद द्वारा उर्दू में बोर्ड लगाना संविधान और कानून दोनों के अनुरूप है।


मुख्य तर्क और टिप्पणियाँ

  1. भाषा और धर्म का कोई संबंध नहीं:
    न्यायालय ने कहा कि किसी भाषा को किसी धर्म विशेष से जोड़ना अनुचित है। “संस्कृत केवल हिंदू धर्म की नहीं, अरबी केवल इस्लाम की नहीं, और उर्दू केवल मुसलमानों की नहीं।”
  2. उर्दू की भारतीयता:
    न्यायालय ने उल्लेख किया कि उर्दू की उत्पत्ति भारतीय भूभाग में हुई। यह फ़ारसी, अरबी, हिंदी और स्थानीय बोलियों के सम्मिश्रण से बनी एक “हिंदुस्तानी भाषा” है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि भारत के महान कवि — मिर्ज़ा ग़ालिब, अल्लामा इक़बाल, फैज़ अहमद फैज़, जोश मलीहाबादी, और प्रेमचंद जैसे लेखकों ने इसका उपयोग किया, जो सभी इस मिट्टी के पुत्र थे।
  3. संविधान का बहुभाषिक स्वरूप:
    संविधान की आठवीं अनुसूची में उर्दू सहित 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। इसलिए किसी भाषा को “दूसरी श्रेणी” में रखना या “धार्मिक भाषा” कहना संविधान की भावना के विपरीत है।
  4. संवाद का माध्यम:
    न्यायालय ने कहा कि यदि किसी क्षेत्र में बड़ी संख्या में उर्दू भाषी लोग हैं, तो स्थानीय निकाय को उर्दू में संवाद करने का अधिकार होना चाहिए। इससे शासन और जनता के बीच संपर्क सशक्त होगा।

न्यायालय की ऐतिहासिक टिप्पणी

फैसले के दौरान न्यायमूर्ति धूलिया ने टिप्पणी की:

“भाषा भावनाओं का माध्यम है, यह विभाजन नहीं बल्कि जुड़ाव का प्रतीक है। उर्दू को केवल मुसलमानों की भाषा कहना, भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा का अपमान है।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि भाषा किसी एक धर्म, जाति या समुदाय की बपौती नहीं होती — वह समाज की सामूहिक चेतना का फल होती है।


फैसले का व्यापक प्रभाव

यह फैसला केवल महाराष्ट्र या उर्दू तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए एक सांस्कृतिक संदेश है।

  1. धार्मिक आधार पर भाषा के भेदभाव का अंत:
    इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर किसी भी भाषा के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
  2. संस्कृति और शिक्षा में समान अवसर:
    उर्दू माध्यम के स्कूलों, साहित्यिक संस्थाओं और सांस्कृतिक संगठनों को यह निर्णय नया आत्मविश्वास देता है।
  3. गंगा-जमुनी तहज़ीब का पुनः सम्मान:
    यह फैसला उस साझी संस्कृति का पुनः स्मरण कराता है जहाँ तुलसीदास और मीर, कबीर और ग़ालिब एक ही धरती पर फले-फूले।
  4. राष्ट्रीय एकता और बहुलता का संदेश:
    भारत की ताक़त उसकी विविधता है। जब हर भाषा को समान सम्मान मिलेगा, तभी “एकता में विविधता” का सिद्धांत सशक्त होगा।

उर्दू की ऐतिहासिक यात्रा

उर्दू का जन्म भारतीय उपमहाद्वीप में हुआ — खासकर दिल्ली सल्तनत और मुग़लकालीन भारत में। सैनिक छावनियों (उर्दू-ए-मुअल्ला) में विभिन्न भाषाओं के संपर्क से यह भाषा विकसित हुई।
फ़ारसी, ब्रज, खड़ी बोली, अरबी और तुर्की के शब्दों का मेल हुआ और धीरे-धीरे यह भाषा “हिंदुस्तानी” संस्कृति की पहचान बन गई।

यह वही भाषा है जिसमें मीर तकी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब, अल्लामा इक़बाल, जोश मलीहाबादी, सआदत हसन मंटो, और कुर्रतुलऐन हैदर जैसे लेखकों ने मानवता, प्रेम और समानता की भावना को शब्दों में ढाला। उर्दू केवल कविता की भाषा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की भाषा है।


न्यायालय के नैतिक संदेश

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने एक गहरा नैतिक संदेश दिया है —

“किसी भी भाषा को धर्म, राजनीति या समुदाय से बाँध देना समाज के विभाजन की शुरुआत है। भारत जैसे देश में भाषा विविधता को मनाने का माध्यम है, न कि उसे सीमित करने का।”

न्यायालय ने प्रशासन को यह भी सुझाव दिया कि भविष्य में किसी भी भाषा को हाशिए पर डालने की प्रवृत्ति से बचा जाए। प्रत्येक भाषा, चाहे वह तमिल हो, कश्मीरी, पंजाबी या उर्दू — भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने की महत्वपूर्ण डोर है।


सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व

इस फैसले ने न केवल कानूनी दृष्टिकोण से बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी बड़ा प्रभाव छोड़ा।

  • इसने उर्दू के साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान को मान्यता दी।
  • यह निर्णय भाषाई सहिष्णुता, समावेश और लोकतांत्रिक मूल्यों का पुनः उद्घोष है।
  • उर्दू अब केवल “एक समुदाय की भाषा” नहीं, बल्कि “भारतीय संस्कृति की धरोहर” के रूप में देखी जा रही है।

मीडिया और जनमानस की प्रतिक्रिया

देशभर के बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों और साहित्यकारों ने इस फैसले का स्वागत किया।
गुलज़ार, जावेद अख्तर, शायर मुनव्वर राणा जैसे साहित्यकारों ने इसे “भाषाई सम्मान का पुनर्जागरण” कहा।
शैक्षणिक संस्थानों में इस निर्णय पर चर्चाएँ हुईं और छात्रों में यह संदेश गया कि भाषा का कोई धर्म नहीं — वह केवल अभिव्यक्ति का माध्यम है।


आलोचनात्मक दृष्टि

यद्यपि कुछ लोगों ने कहा कि उर्दू को प्राथमिकता देने से राज्य भाषा की उपेक्षा होगी, परंतु न्यायालय ने इस शंका को दूर किया। निर्णय में स्पष्ट कहा गया कि “मराठी की गरिमा बनी रहेगी, लेकिन अन्य भाषाओं के उपयोग पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।”
इससे यह सिद्ध हुआ कि भाषाई विविधता और राज्य भाषा का सम्मान दोनों साथ चल सकते हैं


निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय केवल एक भाषाई विवाद का समाधान नहीं, बल्कि भारतीय संविधान की आत्मा का पुनर्स्मरण है। यह बताता है कि भारत में भाषा किसी धर्म या जाति की नहीं होती — वह समाज, संस्कृति और इतिहास की धरोहर होती है।

उर्दू ने इस देश की मिट्टी से जन्म लिया, यही उसकी पहचान है। ग़ालिब ने लिखा था —

“हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे, कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और।”

यह “अंदाज़-ए-बयाँ” भारत की उसी साझा संस्कृति का प्रतीक है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से पुनर्जीवित किया है।
आज जब भाषाई और धार्मिक भेदभाव के खतरे बढ़ रहे हैं, यह फैसला एक रौशनी की तरह है — जो बताता है कि भारत की ताक़त उसकी विविधता और संवाद की संस्कृति में निहित है।


अंतिम संदेश

उर्दू केवल एक भाषा नहीं, बल्कि मोहब्बत, तहज़ीब और इंसानियत की आवाज़ है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय याद दिलाता है कि —

“यह भाषा इस मिट्टी की है, और यह मिट्टी किसी धर्म की नहीं — बल्कि सबकी है।”