उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993): शिक्षा का अधिकार और अनुच्छेद 21 की व्यापकता
भूमिका
भारतीय संविधान की सबसे बड़ी विशेषता इसकी गतिशीलता है। यह समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते हुए समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने प्रावधानों की व्याख्या की अनुमति देता है। विशेषकर अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने अनेक ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं, जिनसे इस अनुच्छेद का दायरा लगातार व्यापक हुआ। इन्हीं महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक है उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993)। इस केस में शिक्षा को 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों का मौलिक अधिकार घोषित किया गया। इस निर्णय ने आगे चलकर 86वें संविधान संशोधन (2002) और शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 की नींव रखी।
मामले की पृष्ठभूमि
उन्नीकृष्णन केस की उत्पत्ति उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश और शिक्षा की लागत से जुड़ी नीतियों को लेकर हुई। आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु सहित कई राज्यों में निजी प्रोफेशनल कॉलेज (चिकित्सा और इंजीनियरिंग) छात्रों से अत्यधिक शुल्क वसूल रहे थे। इसे चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि शिक्षा मौलिक अधिकार है और राज्य तथा निजी संस्थानों का दायित्व है कि वे इसे सभी के लिए सुलभ बनाएं।
याचिकाकर्ताओं का मुख्य प्रश्न यह था कि क्या शिक्षा केवल राज्य की “नीति-निर्देशक तत्वों” (Directive Principles) के तहत एक आकांक्षा है या इसे अनुच्छेद 21 में “जीवन के अधिकार” का अभिन्न हिस्सा माना जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रमुख प्रश्न
- क्या शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में अनुच्छेद 21 में शामिल किया जा सकता है?
- क्या 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी है?
- क्या निजी शैक्षणिक संस्थानों को केवल लाभ कमाने वाले व्यावसायिक उद्यम के रूप में संचालित किया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने ऐतिहासिक निर्णय दिया –
- शिक्षा और अनुच्छेद 21
- न्यायालय ने कहा कि जीवन का अधिकार केवल जीवित रहने तक सीमित नहीं है, बल्कि गरिमापूर्ण जीवन जीने के अवसरों से भी जुड़ा है।
- बिना शिक्षा के व्यक्ति अपनी क्षमताओं का विकास नहीं कर सकता और न ही समाज में बराबरी से भागीदारी कर सकता है।
- इसलिए शिक्षा जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है।
- 6 से 14 वर्ष तक शिक्षा मौलिक अधिकार
- कोर्ट ने कहा कि 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना राज्य का मौलिक दायित्व है।
- यह जिम्मेदारी केवल नीति-निर्देशक तत्व नहीं, बल्कि मौलिक अधिकार के रूप में लागू होती है।
- 14 वर्ष के बाद शिक्षा
- 14 वर्ष से अधिक उम्र के बाद शिक्षा मौलिक अधिकार नहीं रहेगी, बल्कि यह राज्य की आर्थिक क्षमता और नीतिगत निर्णय पर निर्भर करेगी।
- निजी संस्थानों की भूमिका
- कोर्ट ने कहा कि शिक्षा को केवल व्यावसायिक गतिविधि नहीं माना जा सकता।
- निजी संस्थानों को भी सामाजिक दायित्व निभाना होगा और गरीब छात्रों के लिए कुछ सीटें आरक्षित करनी होंगी।
निर्णय का महत्त्व
- शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा – इस केस ने पहली बार स्पष्ट रूप से शिक्षा को अनुच्छेद 21 का हिस्सा मानकर 6–14 वर्ष के बच्चों के लिए इसे मौलिक अधिकार घोषित किया।
- राज्य का दायित्व – न्यायालय ने राज्य को बाध्य किया कि वह सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराए।
- निजीकरण पर अंकुश – शिक्षा को केवल व्यापार मानने की प्रवृत्ति पर रोक लगाई गई।
- भविष्य के संवैधानिक विकास की नींव – इस निर्णय ने सीधे तौर पर 86वें संविधान संशोधन का मार्ग प्रशस्त किया।
इस निर्णय से जुड़े संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार।
- अनुच्छेद 41 – काम और शिक्षा का अधिकार।
- अनुच्छेद 45 – 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा।
- अनुच्छेद 46 – कमजोर वर्गों के लिए शिक्षा का प्रोत्साहन।
आगे का विकास
- 86वां संविधान संशोधन, 2002
- अनुच्छेद 21A जोड़ा गया, जिसने 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE Act)
- इस अधिनियम ने व्यावहारिक स्तर पर शिक्षा के अधिकार को लागू किया।
- इसमें स्कूलों में न्यूनतम मानक, शिक्षकों की नियुक्ति, बच्चों का निःशुल्क दाखिला और गरीब छात्रों के लिए 25% सीट आरक्षण का प्रावधान किया गया।
अन्य महत्वपूर्ण केसों से तुलना
- मो. अहमद खुरैशी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1993) – इस केस में कोर्ट ने कहा कि शिक्षा जीवन के अधिकार का हिस्सा है।
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) – अनुच्छेद 21 की व्याख्या को व्यापक बनाते हुए “उचित प्रक्रिया” का सिद्धांत अपनाया।
- पुट्टस्वामी केस (2017) – जीवन और गरिमा के अधिकार का और विस्तार किया, जो अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा के महत्व को भी पुष्ट करता है।
सामाजिक प्रभाव
- गरीब और वंचित वर्गों को लाभ – इस निर्णय ने शिक्षा को सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध कराने का रास्ता खोला।
- लोकतांत्रिक भागीदारी – शिक्षित नागरिक ही लोकतंत्र में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं।
- समानता और न्याय – शिक्षा समान अवसर की गारंटी बनती है, जिससे समाज में असमानता घटती है।
आलोचना और चुनौतियाँ
- संसाधनों की कमी – राज्य के पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे कि वह सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे सके।
- गुणवत्ता बनाम उपलब्धता – शिक्षा उपलब्ध कराना आसान है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना अब भी चुनौती है।
- ग्रामीण-शहरी अंतर – आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की स्थिति शहरी क्षेत्रों की तुलना में कमजोर है।
निष्कर्ष
उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) भारतीय न्यायिक इतिहास का मील का पत्थर है। इस निर्णय ने शिक्षा को पहली बार स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मौलिक अधिकार घोषित किया और 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए इसे निःशुल्क एवं अनिवार्य बनाने का आदेश दिया। यद्यपि इस अधिकार को व्यावहारिक रूप से लागू करने में कई चुनौतियाँ हैं, फिर भी यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र और समाज को अधिक न्यायपूर्ण, समानतामूलक और सशक्त बनाने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान करता है।
शिक्षा और मौलिक अधिकार – सारांश तालिका
अनुच्छेद / केस लॉ | विषय-वस्तु | मुख्य सिद्धांत |
---|---|---|
अनुच्छेद 21 | जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार | जीवन का अधिकार केवल अस्तित्व नहीं, बल्कि गरिमामय जीवन है; इसमें शिक्षा भी निहित है |
अनुच्छेद 21A (86वां संशोधन, 2002) | 6–14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा | शिक्षा को स्पष्ट रूप से मौलिक अधिकार बनाया गया |
अनुच्छेद 41 | काम और शिक्षा का अधिकार (नीति-निर्देशक तत्व) | राज्य संसाधनों के अनुसार नागरिकों को शिक्षा उपलब्ध कराएगा |
अनुच्छेद 45 | 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा | प्राथमिक स्तर तक अनिवार्य शिक्षा की संवैधानिक गारंटी |
अनुच्छेद 46 | कमजोर वर्गों की शिक्षा और उन्नति | अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्गों को विशेष प्रोत्साहन |
मो. अहमद खुरैशी बनाम राज्य म.प्र. (1993) | शिक्षा को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना गया | अनुच्छेद 21 के अभिन्न अंग के रूप में शिक्षा |
उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) | 6–14 वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा मौलिक अधिकार घोषित | राज्य पर निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का दायित्व |
मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) | अनुच्छेद 21 की उदार व्याख्या | ‘उचित और न्यायसंगत प्रक्रिया’ का सिद्धांत स्थापित |
पुट्टस्वामी केस (2017) | निजता का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा | गरिमामय जीवन का दायरा विस्तृत; शिक्षा को गरिमा से जोड़ा गया |
तुलनात्मक विश्लेषण:
मो. अहमद खुरैशी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1993) बनाम उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993)
आधार | मो. अहमद खुरैशी केस (1993) | उन्नीकृष्णन केस (1993) |
---|---|---|
प्रसंग / पृष्ठभूमि | राज्य की शिक्षा व्यवस्था की कमी और नागरिकों के शिक्षा से वंचित होने का मुद्दा | निजी प्रोफेशनल कॉलेजों द्वारा अत्यधिक शुल्क वसूली और शिक्षा के व्यवसायीकरण का मुद्दा |
मुख्य प्रश्न | क्या शिक्षा जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) का हिस्सा है? | क्या शिक्षा मौलिक अधिकार है? यदि हाँ, तो किस सीमा तक? |
न्यायालय का निर्णय | शिक्षा जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है; राज्य पर शिक्षा उपलब्ध कराने का दायित्व है | 6–14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा मौलिक अधिकार; 14 वर्ष के बाद शिक्षा राज्य की आर्थिक क्षमता पर निर्भर |
संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या | अनुच्छेद 21 को नीति-निर्देशक तत्वों (अनु. 41, 45) के साथ जोड़कर पढ़ा | अनुच्छेद 21 के साथ-साथ अनु. 41, 45, 46 को स्पष्ट रूप से लागू किया गया |
शिक्षा का दायरा | शिक्षा को गरिमापूर्ण जीवन का आधार माना गया | शिक्षा को स्पष्ट रूप से मौलिक अधिकार का दर्जा दिया (6–14 वर्ष तक) |
निजी संस्थानों की भूमिका | मुख्य फोकस राज्य की जिम्मेदारी पर | निजी संस्थानों को भी सामाजिक दायित्व निभाने का आदेश; शिक्षा को ‘व्यवसाय’ नहीं माना गया |
भविष्य पर प्रभाव | शिक्षा को मौलिक अधिकार की नींव रखने वाला पहला निर्णय | शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने की स्पष्ट घोषणा; 86वां संशोधन (अनु. 21A) और RTE Act, 2009 का मार्ग प्रशस्त |
संयुक्त निष्कर्ष
- दोनों निर्णय एक-दूसरे के पूरक हैं।
- खुरैशी केस ने यह आधार दिया कि शिक्षा जीवन के अधिकार का हिस्सा है।
- उन्नीकृष्णन केस ने इस विचार को आगे बढ़ाते हुए स्पष्ट कर दिया कि 6–14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य होगी।
- इन दोनों निर्णयों ने मिलकर शिक्षा को संवैधानिक रूप से एक मौलिक अधिकार बनाने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान दिया।