उत्तर प्रदेश धर्मांतरण कानून पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: धार्मिक सभा और धर्मार्थ कार्य अपराध नहीं
प्रस्तावना
भारत में धर्मांतरण से संबंधित विवादों ने हमेशा से सामाजिक और कानूनी बहसों को जन्म दिया है। विभिन्न राज्यों में लागू धर्मांतरण विरोधी कानूनों का उद्देश्य अवैध धर्मांतरण को रोकना माना जाता है। इनमें उत्तर प्रदेश का ‘उत्तर प्रदेश धर्मांतरण (अवैध धर्मांतरण निवारण) अधिनियम, 2021’ काफी विवादास्पद रहा है।
हाल के वर्षों में इस कानून के तहत कई मामलों में कार्रवाई हुई, जिसमें विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों के अधिकारी भी शामिल थे। इन मामलों में आरोप यह थे कि व्यक्तियों को प्रलोभन, दबाव या धोखे के माध्यम से धर्मांतरण के लिए प्रेरित किया गया।
17 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें कानून के दुरुपयोग, जांच की गुणवत्ता, और धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया गया। यह निर्णय न केवल SHUATS विश्वविद्यालय के अधिकारियों के लिए राहत का कारण बना, बल्कि पूरे देश में धार्मिक स्वतंत्रता और न्यायिक सक्रियता के दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है।
मामले की पृष्ठभूमि
सम हिगिनबॉटम यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर, टेक्नोलॉजी एंड साइंसेज (SHUATS), प्रयागराज के कुलपति और अन्य अधिकारियों के खिलाफ 2022 और 2023 में कई FIR दर्ज की गई थीं।
मुख्य आरोप थे:
- विश्वविद्यालय में अवैध धर्मांतरण करवाना।
- कर्मचारियों और अन्य व्यक्तियों को प्रलोभन या नौकरी का वादा करके धर्मांतरण के लिए प्रेरित करना।
- धार्मिक कार्यक्रमों और प्रचार के माध्यम से लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए उकसाना।
इन FIRs के तहत जांच का उद्देश्य यह स्थापित करना था कि क्या अधिकारियों ने जानबूझकर किसी को धर्मांतरण के लिए प्रभावित किया। हालांकि, जांच में कई कानूनी और तथ्यात्मक खामियां पाई गईं।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
1. FIRs की वैधता पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पहली FIR, जो 2022 में दर्ज की गई थी, कानूनी दृष्टि से अवैध थी। इसका कारण यह था कि FIR किसी पीड़ित या उसके परिवार के सदस्य द्वारा दर्ज नहीं की गई थी, बल्कि तीसरे पक्ष द्वारा दायर की गई थी।
उत्तर प्रदेश धर्मांतरण अधिनियम, 2021 की धारा 4 के अनुसार, केवल पीड़ित या उसके परिवार के सदस्य ही FIR दर्ज कर सकते हैं।
कोर्ट का निष्कर्ष:
तीसरे पक्ष द्वारा दर्ज की गई FIR कानूनी रूप से वैध नहीं है और इसे खारिज किया जाना चाहिए।
2. जांच की गुणवत्ता पर सवाल
कोर्ट ने जांच के तरीके पर भी गंभीर सवाल उठाए। मुख्य बिंदु थे:
- गवाहों के बयान “साइकलोस्टाइल” (mechanically reproduced) पाए गए।
- इन बयानों में एक जैसे शब्द और वर्तनी की गलतियों की पुनरावृत्ति थी।
- बयानों में केवल धार्मिक सभा और बाइबिल प्रचार का उल्लेख था, लेकिन अवैध धर्मांतरण के कोई ठोस प्रमाण नहीं थे।
कोर्ट ने स्पष्ट किया:
“धार्मिक सभाएं या धर्मार्थ कार्य उत्तर प्रदेश धर्मांतरण अधिनियम या भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध नहीं हैं।”
इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को धर्म के प्रचार या धार्मिक गतिविधियों के लिए अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि यह स्पष्ट रूप से अवैध धर्मांतरण के उद्देश्य से न किया गया हो।
3. अभियोजन की प्रक्रिया में खामियां
कोर्ट ने अभियोजन की प्रक्रिया में भी गंभीर खामियां पाईं:
- पुलिस ने एक ही आरोप के लिए कई FIRs दर्ज की थीं।
- यह एक ही घटना पर आधारित थी, जिससे यह प्रतीत होता है कि जांच का उद्देश्य अविनाशी तथ्यों की खोज नहीं, बल्कि अलंकृत आरोपों को साबित करना था।
कोर्ट ने टिप्पणी की:
“अपराधी कानून को निर्दोष व्यक्तियों के उत्पीड़न का उपकरण नहीं बनने दिया जा सकता।”
इसका मतलब है कि कानून का दुरुपयोग केवल आरोपों को बढ़ावा देने या सामाजिक दबाव बनाने के लिए नहीं किया जा सकता।
कानूनी और सामाजिक महत्व
1. धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा
यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि:
- धार्मिक सभा और धर्मार्थ कार्य केवल इसलिए अपराध नहीं हो सकते कि वे किसी विशेष धर्म से संबंधित हैं।
- राज्य का दायित्व है कि वह धार्मिक गतिविधियों को निष्पक्ष दृष्टिकोण से देखे।
यह निर्णय धार्मिक गतिविधियों पर राज्य की निष्पक्ष दृष्टि को स्थापित करता है और धार्मिक स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित करता है।
2. कानून के दुरुपयोग पर नियंत्रण
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि धर्मांतरण कानून का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।
- कानून का प्रयोग केवल वास्तविक मामलों में किया जाना चाहिए।
- राजनीतिक या सामाजिक दबाव बनाने के लिए कानून का इस्तेमाल अवैध है।
इसका प्रभाव यह है कि भविष्य में राज्य और पुलिस अधिकारियों को कानून के प्रयोग में अधिक सावधानी बरतनी होगी।
3. न्यायिक सक्रियता और स्वतंत्रता
कोर्ट का यह निर्णय न्यायपालिका की सक्रियता और स्वतंत्रता का प्रतीक है।
- न्यायालय ने न केवल कानूनी पहलुओं पर ध्यान दिया, बल्कि सामाजिक और मानवाधिकार दृष्टिकोण से भी मामले की समीक्षा की।
- अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि निर्दोष व्यक्तियों को कानून के नाम पर परेशान नहीं किया जाए।
इस निर्णय ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायपालिका का कर्तव्य है संवैधानिक अधिकारों और सामाजिक न्याय की रक्षा करना।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कई मायनों में ऐतिहासिक है।
- SHUATS अधिकारियों के लिए राहत: यह निर्णय विश्वविद्यालय के कुलपति और अन्य अधिकारियों के लिए कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।
- धार्मिक स्वतंत्रता की पुष्टि: यह स्पष्ट करता है कि धर्मार्थ और धार्मिक गतिविधियां केवल इस आधार पर अपराध नहीं हो सकतीं कि वे किसी धर्म से संबंधित हैं।
- कानून का दुरुपयोग रोका गया: निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि धर्मांतरण कानून का प्रयोग केवल वास्तविक मामलों में हो।
- न्यायिक सक्रियता: यह निर्णय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को दर्शाता है।
इस फैसले से यह संदेश जाता है कि धार्मिक सभा और धर्मार्थ कार्य अवैध धर्मांतरण के उद्देश्य से नहीं किए जाने पर अपराध नहीं माने जाएंगे। यह निर्णय भारतीय समाज में धार्मिक सहिष्णुता और विविधता की भावना को प्रोत्साहित करता है।
सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोण से महत्व
- इस निर्णय से राज्य और पुलिस अधिकारियों को यह सीख मिलती है कि सावधानीपूर्वक और निष्पक्ष जांच करनी होगी।
- धर्मांतरण जैसे संवेदनशील मामलों में कानून का सही और निष्पक्ष प्रयोग आवश्यक है।
- यह निर्णय धार्मिक समुदायों और समाज में सहिष्णुता और स्वतंत्रता की भावना को बढ़ावा देता है।
- भविष्य में धार्मिक गतिविधियों के खिलाफ अवांछित कानूनी दबाव से समाज को बचाने में यह महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करेगा।
समापन:
सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक निर्णय न केवल न्यायिक स्वतंत्रता और निष्पक्षता का प्रतीक है, बल्कि यह धार्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की दिशा में भी एक मजबूत कदम है। यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि कानून का प्रयोग केवल वास्तविक उद्देश्यों के लिए हो और धर्मार्थ व धार्मिक गतिविधियों को केवल इसलिए अपराध न माना जाए कि वे किसी धर्म से संबंधित हैं।