“उत्तराखंड न्यायिक सेवा परीक्षा में दृष्टिहीन उम्मीदवार को दिव्यांग कोटे से बाहर रखने पर सुप्रीम कोर्ट करेगा सुनवाई: समानता, अधिकार और समावेशिता पर अहम सवाल”

लेख शीर्षक:
“उत्तराखंड न्यायिक सेवा परीक्षा में दृष्टिहीन उम्मीदवार को दिव्यांग कोटे से बाहर रखने पर सुप्रीम कोर्ट करेगा सुनवाई: समानता, अधिकार और समावेशिता पर अहम सवाल”


परिचय:
भारतीय संविधान की मूल भावना — “समानता, न्याय और गरिमा” — तब संकट में आ जाती है जब दिव्यांगजनों को उनकी पात्रता और योग्यता के बावजूद संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। ऐसा ही एक मामला उत्तराखंड से सामने आया है, जहां दृष्टिहीन (नेत्रहीन) उम्मीदवार को उत्तराखंड न्यायिक सेवा परीक्षा में दिव्यांग कोटे से बाहर रखा गया। इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है, और अब शीर्ष अदालत ने इस याचिका पर सुनवाई करने की स्वीकृति दे दी है।


मामले की पृष्ठभूमि:

  • याचिकाकर्ता एक नेत्रहीन विधि स्नातक हैं, जिन्होंने उत्तराखंड न्यायिक सेवा परीक्षा के लिए आवेदन किया था।
  • उन्होंने Persons with Disabilities (Equal Opportunities, Protection of Rights and Full Participation) Act, 2016 के तहत दिव्यांग कोटे में शामिल होने का दावा किया।
  • हालांकि, उत्तराखंड लोक सेवा आयोग (UKPSC) द्वारा उन्हें यह कहते हुए बाहर कर दिया गया कि उनकी दिव्यांगता श्रेणी इस परीक्षा के लिए उपयुक्त नहीं है।
  • साथ ही कुछ अन्य अभ्यर्थियों को भी उत्तराखंड के मूल निवासी न होने के आधार पर अयोग्य ठहराया गया।

याचिका के प्रमुख आधार:

  1. RPWD Act, 2016 के तहत दृष्टिहीन व्यक्तियों को समान अवसर देना अनिवार्य है।
  2. न्यायिक सेवा जैसे पदों में समावेशिता और संवेदनशीलता की आवश्यकता है, न कि भेदभाव की।
  3. दृष्टिहीनता कोई बौद्धिक अक्षमता नहीं है और तकनीकी सहयोग (assistive technology) के माध्यम से सक्षम रूप से न्यायिक कार्य किया जा सकता है।
  4. मूल निवासी होने की शर्त भी संवैधानिक समानता (Article 14, 15 और 16) का उल्लंघन करती है।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:

  • सुप्रीम कोर्ट ने प्रारंभिक सुनवाई में कहा कि यह मामला ‘कानूनी रूप से विचारणीय’ है और संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन का गंभीर आरोप है।
  • कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार और लोक सेवा आयोग से जवाब मांगा है।
  • यह स्पष्ट किया गया कि दिव्यांग कोटे की व्याख्या संकीर्ण दृष्टिकोण से नहीं की जा सकती, बल्कि इसे समावेशिता और समानता की भावना से देखा जाना चाहिए।

कानूनी और संवैधानिक मुद्दे:

  1. RPWD Act की धारा 32 और 33 के तहत प्रत्येक सरकारी सेवा में न्यूनतम 4% आरक्षण का प्रावधान है।
  2. धारा 20 में कहा गया है कि दिव्यांग व्यक्ति को रोजगार देने से केवल इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता कि वह दिव्यांग है, जब तक कि वह उस पद के लिए अक्षम न हो।
  3. संविधान के अनुच्छेद 14, 15(1), 16(1) और 16(2) सभी नागरिकों को समान अवसर की गारंटी देते हैं, जिसमें दिव्यांगजन भी सम्मिलित हैं।
  4. सुप्रीम कोर्ट के पिछले निर्णय — जैसे Vikash Kumar v. UPSC (2021) — में भी दिव्यांगता के आधार पर भेदभाव को असंवैधानिक माना गया है।

इस मामले का महत्व:

  • यह केवल एक उम्मीदवार का व्यक्तिगत संघर्ष नहीं है, बल्कि पूरे दिव्यांग समुदाय की न्यायपालिका में भागीदारी के अधिकार का मामला है।
  • यह मामला तय करेगा कि क्या न्यायपालिका में भी समावेशी अवसर उपलब्ध होंगे या दिव्यांगता अब भी बाधा मानी जाएगी।
  • यदि सुप्रीम कोर्ट इस याचिका को स्वीकार करता है, तो यह देशभर के न्यायिक परीक्षाओं में दिव्यांग जनों की भागीदारी के मार्ग खोल सकता है।

निष्कर्ष:
यह मामला भारतीय न्याय प्रणाली की संवेदनशीलता, समावेशिता और समानता की परीक्षा है। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय केवल एक दृष्टिहीन उम्मीदवार के भविष्य को नहीं, बल्कि पूरे दिव्यांग समुदाय के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा को निर्धारित करेगा।
यदि न्यायालय इस याचिका को स्वीकार कर उपयुक्त दिशा-निर्देश जारी करता है, तो यह भारतीय लोकतंत्र के न्यायमूलक चरित्र की सशक्त पुष्टि होगी।