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“उड़ीसा उच्च न्यायालय का निर्णय: दिवालियापन के बाद भी निदेशक रहेंगे चेक अनादरण के लिए उत्तरदायी”

दिवालियापन कंपनी को नहीं बचा सकता – उड़ीसा उच्च न्यायालय का महत्त्वपूर्ण निर्णय : निदेशकों की वैicarious Liability बनी रहेगी, चेक अनादरण पर दंड से मुक्ति नहीं

भूमिका :
उड़ीसा उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय “दिशऑनर ऑफ चेक” अर्थात चेक अनादरण से संबंधित मामलों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ है। यह निर्णय विशेष रूप से उस स्थिति को स्पष्ट करता है जब किसी कंपनी के खिलाफ दिवालियापन (Insolvency) या परिसमापन (Liquidation) की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, और यह प्रश्न उठता है कि क्या ऐसे में कंपनी के निदेशकों को धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के तहत दंडात्मक दायित्व से मुक्त किया जा सकता है या नहीं। न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि कंपनी का दिवालिया हो जाना या उसके खिलाफ इन्सॉल्वेंसी की कार्यवाही प्रारंभ होना, निदेशकों को उनके दायित्वों से मुक्त नहीं करता।


मामले की पृष्ठभूमि :
इस प्रकरण में संबंधित कंपनी द्वारा एक चेक जारी किया गया था, जो बैंक में प्रस्तुत करने पर “अपर्याप्त निधि” (insufficient funds) के कारण अनादृत हो गया। वैधानिक नोटिस दिए जाने के बावजूद भुगतान नहीं किया गया। फलस्वरूप, शिकायतकर्ता ने कंपनी और उसके निदेशकों के विरुद्ध धारा 138 एन.आई. एक्ट के तहत वाद दायर किया।

इस बीच, कंपनी के विरुद्ध “Insolvency and Bankruptcy Code, 2016” के तहत दिवालियापन कार्यवाही प्रारंभ हुई और कंपनी को दिवालिया घोषित कर दिया गया। निदेशकों ने यह तर्क दिया कि अब जब कंपनी दिवालिया हो चुकी है और उसका नियंत्रण “Resolution Professional” या “Liquidator” के हाथों में चला गया है, तो उन पर कोई आपराधिक दायित्व नहीं रह जाता।


न्यायालय के समक्ष प्रमुख प्रश्न :
मुख्य प्रश्न यह था कि क्या किसी कंपनी के दिवालिया या परिसमापन की स्थिति में उसके निदेशकों पर धारा 138 के तहत चल रही आपराधिक कार्यवाही स्वतः समाप्त हो जाएगी?


उड़ीसा उच्च न्यायालय का निर्णय :
न्यायालय ने इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट शब्दों में “नहीं” में दिया। न्यायालय ने कहा कि —

“कंपनी का दिवालिया घोषित हो जाना निदेशकों को स्वतः ही उनके वैicarious दायित्व से मुक्त नहीं करता। यदि चेक अनादरण का अपराध पहले ही घटित हो चुका है, तो बाद में आरंभ हुई दिवालियापन कार्यवाही उस अपराध को निरस्त नहीं कर सकती।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि चेक अनादरण का अपराध उस समय पूरा हो जाता है जब—

  1. चेक बैंक में अनादृत हो जाए,
  2. वैधानिक नोटिस भेजा जाए, और
  3. नोटिस के बाद भी भुगतान न किया जाए।

एक बार ये तीनों शर्तें पूरी हो जाएँ, तो अपराध संपन्न हो जाता है। इसके बाद की कोई भी प्रक्रिया, चाहे वह दिवालियापन हो या परिसमापन, निदेशकों को आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं कर सकती।


विकारियस दायित्व (Vicarious Liability) का सिद्धांत :
धारा 141 एन.आई. एक्ट के अंतर्गत, यदि कोई कंपनी अपराध करती है, तो उसके निदेशक, प्रबंधक और वे सभी व्यक्ति जो कंपनी के कार्यों के संचालन के लिए उत्तरदायी थे, वे भी समान रूप से दोषी माने जाते हैं। इसे विकारियस दायित्व कहा जाता है।
इसका अर्थ है कि अपराध करने वाला केवल “कंपनी” नहीं होती, बल्कि उसके पीछे के वे व्यक्ति भी उत्तरदायी होते हैं जो उस समय कंपनी के संचालन में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे।


न्यायालय की विस्तृत व्याख्या :
न्यायालय ने कहा कि—

  • Insolvency proceedings का उद्देश्य केवल कंपनी की वित्तीय पुनर्संरचना या ऋणदाताओं के दावों का निपटान करना है।
  • यह कार्यवाही कंपनी की सिविल देनदारियों को प्रभावित कर सकती है, लेकिन इसका आपराधिक मुकदमों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  • यदि निदेशकों को यह छूट दे दी जाए कि कंपनी के दिवालिया होते ही उनका दायित्व समाप्त हो जाएगा, तो यह न्याय के साथ एक गंभीर अन्याय होगा।

न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि IBC (Insolvency and Bankruptcy Code) की धारा 14 में जो “Moratorium” दिया गया है, वह केवल सिविल प्रकृति की कार्यवाहियों पर लागू होता है, न कि आपराधिक कार्यवाहियों पर। अतः धारा 138 एन.आई. एक्ट के तहत चल रही कार्यवाही उस पर प्रतिबंधित नहीं की जा सकती।


महत्त्वपूर्ण अवलोकन :
उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में निम्नलिखित बिंदुओं पर बल दिया—

  1. अपराध का पूर्ण होना: चेक अनादरण का अपराध उस समय पूर्ण हो जाता है जब वैधानिक नोटिस के बाद भी भुगतान नहीं किया जाता।
  2. दिवालियापन की अप्रासंगिकता: कंपनी के दिवालिया हो जाने से निदेशकों की आपराधिक जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती।
  3. विकारियस दायित्व की निरंतरता: जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि निदेशक अपराध के समय कंपनी के कार्यों के संचालन में नहीं थे, वे अभियोजन से मुक्त नहीं हो सकते।
  4. IBC की सीमाएँ: Insolvency Code आपराधिक अभियोजन को बाधित नहीं करता।

पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांतों से सामंजस्य :
न्यायालय ने इस निर्णय में P. Mohanraj & Ors. v. Shah Brothers Ispat Pvt. Ltd. (2021) 6 SCC 258 का हवाला दिया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि IBC की धारा 14 के अंतर्गत moratorium कंपनी पर लागू होती है, परन्तु उसके निदेशकों या अधिकारियों पर नहीं।
इसलिए, कंपनी के विरुद्ध धारा 138 की कार्यवाही अस्थायी रूप से रुकी रह सकती है, परंतु निदेशकों के विरुद्ध मुकदमा जारी रहेगा।


कानूनी एवं व्यावहारिक महत्व :
यह निर्णय उन मामलों में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा जहाँ निदेशक अपने बचाव में यह तर्क देते हैं कि कंपनी दिवालिया हो चुकी है, इसलिए उन पर अब कोई दायित्व नहीं बनता।
अब स्पष्ट है कि—

  • कंपनी का दिवालियापन निदेशकों के दंडात्मक दायित्व को समाप्त नहीं करता।
  • आपराधिक कार्यवाही व्यक्तिगत उत्तरदायित्व के आधार पर जारी रहेगी।
  • कानून का उद्देश्य आर्थिक अपराधों से बचाव करने वालों को सुरक्षा देना नहीं, बल्कि न्याय सुनिश्चित करना है।

निष्कर्ष :
उड़ीसा उच्च न्यायालय का यह निर्णय वित्तीय अनुशासन और कानूनी जवाबदेही के क्षेत्र में एक अत्यंत महत्वपूर्ण दिशा देता है। यह स्पष्ट करता है कि धारा 138 एन.आई. एक्ट के तहत चेक अनादरण एक गंभीर आर्थिक अपराध है, जिसे कंपनी की दिवालियापन प्रक्रिया या किसी प्रशासनिक आदेश से मिटाया नहीं जा सकता।

कंपनी के निदेशकों का यह कर्तव्य है कि वे वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता बनाए रखें और यह सुनिश्चित करें कि कंपनी द्वारा जारी किए गए चेक उचित रूप से भुगतान योग्य हों।
इस निर्णय ने यह संदेश दिया है कि—

“कानून के समक्ष कोई भी व्यक्ति या संस्था — चाहे वह कंपनी ही क्यों न हो — दायित्व से ऊपर नहीं है।”

इस प्रकार, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह स्थापित कर दिया कि “दिवालियापन के बाद भी दायित्व कायम रहेगा”, और यह निर्णय आगे चलकर आर्थिक अपराधों से संबंधित मामलों में एक सशक्त मिसाल के रूप में देखा जाएगा।