शीर्षक: इलाहाबाद हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय – विभाजन वादों में सामान्य अभ्यस्ति का नियम नहीं होगा लागू
भूमिका:
भारतीय दीवानी प्रक्रिया संहिता (CPC) के तहत, जब किसी पक्षकार की मृत्यु हो जाती है और उसके उत्तराधिकारी को समय पर पक्षकार नहीं बनाया जाता, तो वाद सामान्यतः abatement (अभ्यस्ति) हो जाता है। लेकिन हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि विभाजन वाद (Partition Suits) इस सामान्य नियम के अधीन नहीं आते। यह निर्णय न केवल सीपीसी की व्याख्या में मार्गदर्शक है, बल्कि विभाजन वादों की प्रकृति और उसकी विशिष्टताओं को भी रेखांकित करता है।
मामले की पृष्ठभूमि:
उक्त वाद में एक संयुक्त परिवार की संपत्ति के विभाजन को लेकर न्यायालय के समक्ष वाद विचाराधीन था। इस वाद में वादी पक्षकारों में से एक की मृत्यु हो गई थी, और उत्तराधिकारी को समय से पक्षकार नहीं बनाया गया। प्रतिवादी ने वाद के abatement की मांग की, यह तर्क देते हुए कि मृत व्यक्ति की अनुपस्थिति में वाद आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
मुख्य कानूनी प्रावधान:
इस मामले में सीपीसी के निम्नलिखित प्रावधानों की चर्चा प्रमुख रही:
- ऑर्डर 22 रूल 10A – जो यह कहता है कि यदि वकील को किसी पक्षकार की मृत्यु की जानकारी हो, तो वह न्यायालय को इसकी सूचना देगा।
- ऑर्डर 1 रूल 10(2) – न्यायालय को यह अधिकार देता है कि वह आवश्यक पक्षकारों को जोड़ने या हटाने का निर्देश दे सकता है।
हाईकोर्ट का निर्णय और तर्क:
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा कि विभाजन वाद एक विशेष प्रकृति का दीवानी वाद होता है, जिसमें संयुक्त संपत्ति के हिस्सेदारों के हित आपस में जुड़े होते हैं। न्यायालय ने यह रेखांकित किया कि:
- विभाजन वादों में cause of action (वाद का कारण) मृत पक्षकार की मृत्यु से समाप्त नहीं होता।
- वाद के अन्य हिस्सेदारों को अपने हिस्से का दावा करने का अधिकार बना रहता है।
- संपत्ति पर उत्तराधिकार स्वतः स्थानांतरित होता है और मृतक के उत्तराधिकारी उसी स्थान पर पक्षकार बनाए जा सकते हैं।
- इसलिए, वाद की abatement का सामान्य नियम विभाजन वादों में लागू नहीं होता।
यह एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है क्योंकि इससे वाद तकनीकी कारणों से समाप्त नहीं होता, और न्याय के सिद्धांत को प्राथमिकता दी जाती है।
न्यायालय की व्याख्या का महत्व:
इस निर्णय से निम्नलिखित कानूनी और व्यावहारिक प्रभाव सामने आते हैं:
- यह स्पष्ट करता है कि विभाजन वादों की प्रकृति अन्य दीवानी वादों से भिन्न होती है।
- न्यायालय ने यह संकेत दिया कि संपत्ति के सहस्वामित्व वाले मामलों में वाद को जीवित रखना न्यायहित में है।
- इससे ऐसे वादों में देरी और दुबारा वाद दायर करने की आवश्यकता नहीं रहती, जिससे न्यायिक संसाधनों की बचत होती है।
- न्यायालय का यह दृष्टिकोण substantial justice (प्रमुख न्याय) को बढ़ावा देता है, तकनीकी जटिलताओं को प्राथमिकता नहीं देता।
निष्कर्ष:
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय एक मील का पत्थर है, जो विभाजन वादों में abatement के सामान्य सिद्धांत को अपवाद के रूप में चिन्हित करता है। यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि सह-स्वामी अपने हिस्से का दावा कर सकें, भले ही कोई पक्षकार मृत्यु को प्राप्त हो गया हो। यह न केवल न्यायिक प्रक्रिया की सरलता को दर्शाता है, बल्कि पारिवारिक संपत्तियों से जुड़े विवादों में एक व्यावहारिक और न्यायसंगत मार्ग प्रशस्त करता है।
इस निर्णय से जुड़ी विधिक सीखें:
- न्यायालयों को प्रत्येक वाद की प्रकृति के अनुसार अलग दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
- तकनीकी आधारों पर वाद समाप्त करना अंतिम समाधान नहीं होना चाहिए।
- वादों की सुनवाई का मूल उद्देश्य न्याय की प्राप्ति होना चाहिए, न कि प्रक्रिया में उलझना।