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“आयोध्या फैसले को चुनौती देने पर वकील महमूद प्राचा पर ₹6 लाख का दंड : अदालत ने कहा – न्याय का उपहास न बनाएं”

दिल्ली की अदालत द्वारा वकील Mehmood Pracha पर ₹ 6 लाख के शुल्क लगाए गए : D.Y. Chandrachud की टिप्पणी के आधार पर 2019 Ayodhya Verdict को रद्द करने की याचिका को ‘अपरिपक्व’ माना गया”


परिचय
दिल्ली के Patiala House Court ने हाल ही में वकील मेहूमद प्राचा द्वारा दायर याचिका के संबंध में अहम आदेश दिया है। प्राचा ने 2019 में आए आयोध्या विवाद पर Supreme Court of India के फैसले को रद्द करने की याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने यह तर्क दिया था कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश D.Y. Chandrachud ने एक भाषण में यह उल्लेख किया था कि उन्होंने “ईश्वर से प्रार्थना” की थी कि वे न्याय के मार्गदर्शन में सहायता करें। इस आधार पर प्राचा ने यह दावा किया था कि निर्णय “धोखे” (fraud) के कारण अवैध है। न्यायालय ने इस याचिका को “फ्रिवोलस (व्यर्थ) एवं लक्सरीशियस (शानदार) मुकदमेबाजी” माना और प्राचा पर कुल ₹ 6 लाख का शुल्क (कास्ट) लगाया।


विवरण और तथ्य-परिस्थिति

  1. याचिका का आधार
    • वकील मेहूमद प्राचा ने एक सिविल याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने 2019 के आयोध्या मामले के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को ‘मूल रूप से शून्य’ (null and void) घोषित करने का आग्रह किया।
    • इस याचिका में प्रमुख तर्क यह था कि उस निर्णय में शामिल न्यायाधीश में से एक — D.Y. Chandrachud — ने अपने एक भाषण में यह कहा था कि उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि उन्हें इस मामले का हल निकालने में सहायता मिले।
    • प्राचा का कहना था कि यदि न्यायाधीश ने इस तरह “शोध” किया कि वे ईश्वर से मार्गदर्शन ले रहे थे, तो यह न्यायिक तटस्थता के विरुद्ध है, एवं निर्णय धोखे (fraud) के आधार पर खटाया जा सकता है।
  2. न्यायालय का निर्णय
    • दिल्ली की अदालत ने पहले निचली अदालत द्वारा वकील प्राचा पर लगाए गए ₹ 1 लाख के शुल्क को बरकरार रखा। इसके अतिरिक्त अदालत ने ₹ 5 लाख अतिरिक्त शुल्क लगाने का आदेश दिया, जिससे कुल शुल्क ₹ 6 लाख हो गया।
    • अदालत ने इस प्रकार कहा कि ‘प्रेषित याचिका’ ऐसा प्रतीत होती है जो मुकदमेबाजी को व्यर्थ एवं शानदार रूप से (luxurious litigation) उपयोग कर रही है। न्यायालय ने कहा कि इस तरह की याचिकाएँ न्यायपालिका के समय व संसाधनों का दुरुपयोग करती हैं।
    • न्यायाधीश ने यह भी कहा कि D.Y. Chandrachud द्वारा की गई टिप्पणी में “ईश्वर से प्रार्थना” करना एक आध्यात्मिक अभिव्यक्ति थी — यह न्यायिक निर्णय या पक्षपात का संकेत नहीं है।
    • इसके अलावा, अदालत ने यह स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता ने ‘सुप्रीम गॉड’ और ‘विधानिक पक्ष’ (litigant juristic personality) के बीच अस्पष्ट भेद को नहीं समझा है। न्यायालय ने कहा:

    “दण्डार्थ यह प्रतित होता है कि याचिकाकर्ता ने ‘परमेश्वर’ एवं ‘विधि­व्यक्ति’ के मध्य सूक्ष्म विभाजन को नहीं समझा, संभवतः कानून और धर्म को लेकर उसकी समझ त्रुटिपूर्ण रही।”
    • अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता ने न्यायाधीश (D.Y. Chandrachud) को इस याचिका में प्रतिवादी के रूप में शामिल करने का प्रयास किया, जो कि कानूनन गलत था।

  3. महत्‍वपूर्ण टिप्पणी
    • अदालत ने यह माना कि न्यायाधीश की पूर्व सेवाकर होने के कारण उन्हें निशाना बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है — ऐसे मामलों में सर्कुलर रूप से “झूठे दावे” उठाए जा रहे हैं कि सार्वजनिक पद से सेवानिवृति के बाद न्यायाधीश कमजोर हो जाते हैं।
    • न्यायालय ने यह संकेत दिया कि यदि समय रहते इस प्रकार की याचिकाओं पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो न्यायपालिका का दायित्व व समर्पण प्रभावित होगा। … “… इसलिए प्रयोजनात्मक रूप से केवल समस्या बढ़ाने के लिए मुकदमा दायर करना—जब हम समाधान का भाग नहीं बनते बल्कि समस्या का हिस्सा बन जाते हैं—यह वांछनीय नहीं है।”

कानूनी एवं सामाजिक प्रतिफल

  • यह आदेश दर्शाता है कि न्यायाधिकरण इस तरह के याचनाओं के प्रति सख्त हो रहा है, जिन्हें ‘मामले’ की वैधता की बजाय ‘मशाल’ के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
  • न्यायिक समय, संसाधन और सार्वजनिक विश्वास की रक्षा के दृष्टिकोण से देखा जाए, तो इस तरह का शुल्क (cost) लगाने का निर्णय एक चेतावनी की तरह काम करेगा कि frivolous litigation का प्रोत्साहन नहीं मिलेगा।
  • इसके साथ ही यह मामला यह संकेत देता है कि न्यायाधीशों की धार्मिक या आध्यात्मिक अभिव्यक्तियों को स्वतः न्यायिक पक्षपात या निर्णय में हस्तक्षेप के रूप में नहीं देखा जाएगा—यदि ऐसा ठोस प्रमाण न हो कि निर्णय प्रभावित हुआ हो।
  • सामाजिक दृष्टि से, यह एक मील का पत्थर हो सकता है कि किस तरह से न्यायपालिका ‘विद्वेषपूर्ण’ अभियोगों एवं ‘मिश्रित’ याचिकाओं का मुकाबला कर सकती है, जिससे न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता बनी रहे।

विवेचनात्मक टिप्पणी

  • याचिकाकर्ता द्वारा उठाया गया मुद्दा — कि न्यायाधीश ने “ईश्वर से प्रार्थना” की — धर्म, आध्यात्मिकता तथा न्यायिक भूमिका की सीमा को सामने लाता है। क्या यह एक हानिकारक प्रभाव है या एक मानवीय अभिव्यक्ति? अदालत ने स्पष्ट रूप से इसे后一 माना।
  • याचिकाकर्ता को यह समझना था कि न्यायाधीश द्वारा धार्मिक संदर्भ देना स्व-स्वरूप निर्णय को अवैध नहीं बनाता। यह आवश्यक है कि याचिका में यह दिखाया जाए कि निर्णय में पर्याप्त प्रमाण है कि न्यायाधीश ने पक्षपात किया, न कि केवल एक ‘प्रार्थना’ का उल्लेख।
  • अदालत ने ‘विधि-व्यक्ति’ (litigant juristic personality) और ‘परमेश्वर’ (Supreme Being) के बीच स्पष्ट अंतर बताया — इस दृष्टिकोण से याचिकाकर्ता का विश्लेषण असंगत प्रतीत हुआ। यह एक तकनीकी लेकिन महत्वपूर्ण बिंदु है।
  • शुल्क का राशि निर्धारण भी संकेत देता है कि क्या पर्याप्त नहीं था ₹ 1 लाख लागत, इसलिए न्यायालय ने अतिरिक्त ₹ 5 लाख लगाने का फैसला किया, ताकि आगे इस प्रकार की याचिकाओं को रोका जा सके।
  • हालांकि, इस निर्णय से यह भी सवाल खड़े होते हैं कि “फ्रिवोलस” और “लक्सरीशियस” मुकदमा क्या है? इसकी सीमा क्या होनी चाहिए? क्या यह न्यायाधिकरण का विवेकाधिकार है कि वह तय करें क्या याचिका उचित है या नहीं? ऐसे निर्णयों में न्यायाधीश की विवेक शक्ति अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है।

निष्कर्ष
यह निर्णय बताता है कि भारत में न्यायपालिका सिर्फ मामलों को सुनने-पढ़ने तक सीमित नहीं है, बल्कि मुकदमेबाजी के स्वरूप, उद्देश्य और व्यवहार पर भी नियंत्रण रख रही है। वकील मेहूमद प्राचा की याचिका को अदालत ने सही ढंग से ‘बिना वैध कारण’ और ‘समय व संसाधन के दुरुपयोग’ वाला माना। इस प्रकार, ₹ 6 लाख का शुल्क न सिर्फ व्यक्तिगत रूप से उनके लिए बल्कि सम्पूर्ण विधि-व्यवस्था के लिए एक संदेश है: न्याय-व्यवस्था को हल्के में नहीं लिया जा सकता।