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आदिवासी उत्तराधिकार अधिकार और न्यायिक मर्यादा: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय

आदिवासी उत्तराधिकार अधिकार और न्यायिक मर्यादा: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय और सामाजिक न्याय की संवैधानिक सीमा

(Tribal Customary Law vs. Hindu Succession Act — Supreme Court Judgment, Detailed Legal Analysis )

भूमिका

भारत विविधताओं का देश है, जहाँ अनेक धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और जनजातियाँ रहती हैं। भारतीय संविधान न केवल इस विविधता को मान्यता देता है, बल्कि जनजातीय समूहों को विशिष्ट ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संरक्षण भी प्रदान करता है। इसी संदर्भ में, उत्तराधिकार अधिकार और निजी कानूनों के क्षेत्र में जनजातीय समुदायों को विशेष अपवाद दिए गए हैं।

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें हाईकोर्ट ने यह निर्देश दिया था कि राज्य की जनजातीय महिलाओं पर भी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू होगा।

यह निर्णय न केवल जनजातीय समुदायों के अधिकारों और परंपराओं के संरक्षण से जुड़ा है, बल्कि न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) और न्यायिक संयम (Judicial Restraint) की संवैधानिक सीमाओं को भी स्पष्ट करता है।


मामले की पृष्ठभूमि

हिमाचल प्रदेश की एक जनजातीय महिला, जो ‘स्वारा’ (Sawara/Swarna) जनजाति से संबंधित थी, संपत्ति विवाद से जुड़ी एक दीवानी वाद में शामिल थी। वाद का मूल प्रश्न था कि क्या उसके पास पैतृक संपत्ति पर अधिकार है।

निचली अदालत में विवाद सीमित था, परंतु हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अपने आदेश में उत्तराधिकार के व्यापक सवाल पर निर्णय देते हुए कहा कि—

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 हिमाचल की जनजातीय महिलाओं पर भी लागू होगा और वे पुत्रों के समान उत्तराधिकार का अधिकार रखेंगी।

हाईकोर्ट का मानना था कि महिलाएँ चाहे किसी भी समुदाय की हों, उन्हें समान अधिकार मिलना चाहिए और सामाजिक न्याय की दृष्टि से यह आवश्यक है।

हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय को रद्द करते हुए स्पष्ट किया कि—

जनजातीय समुदायों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम तभी लागू होगा जब केंद्र सरकार धारा 2(2) के अंतर्गत अधिसूचना जारी करेगी।


सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और मुख्य बिंदु

✅ 1. Hindu Succession Act की धारा 2(2)

धारा 2(2) स्पष्ट कहती है कि—

“यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होगा जब तक कि केंद्र सरकार अधिसूचना जारी न करे।”

सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया कि—

  • हिमाचल प्रदेश की किसी भी जनजाति के लिए अभी तक ऐसी कोई अधिसूचना जारी नहीं हुई है
  • अतः हाईकोर्ट द्वारा जनजातीय महिलाओं पर अधिनियम लागू करने का निर्णय कानूनी रूप से गलत था

✅ 2. संविधान के अनुच्छेद 341 एवं 342 का महत्व

अनुच्छेद 341 और 342 के तहत—

  • अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सूचीबद्ध करने का अधिकार राष्ट्रपति को है
  • संसद ही इसमें संशोधन कर सकती है

सुप्रीम कोर्ट ने कहा—

“न्यायपालिका इस संवैधानिक प्रक्रिया को बदल नहीं सकती। अदालतें SC/ST सूची का विस्तार नहीं कर सकतीं, न ही वे किसी विशेष समुदाय को सामान्य कानून के दायरे में शामिल कर सकती हैं।”


✅ 3. न्यायिक मर्यादा और सामाजिक न्याय

न्यायालयों की भूमिका समाज सुधार की है, परंतु—

सामाजिक न्याय के नाम पर स्पष्ट विधिक प्रावधानों और संविधान के अनुच्छेदों को बदला नहीं जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—

“किसी भी अदालत को यह अधिकार नहीं है कि वह विधायिका द्वारा दिए गए अपवादों को हटाए या किसी कानून का ऐसे क्षेत्र में विस्तार करे जहाँ विधायिका ने उसे लागू नहीं किया है।”

यह एक महत्वपूर्ण सन्देश है कि—

  • न्यायपालिका कानून की व्याख्या कर सकती है
  • लेकिन कानून बना नहीं सकती या संविधान द्वारा दिए विशेषाधिकारों को नहीं बदल सकती

✅ 4. मूल वाद की सीमा से परे जाकर आदेश देना अनुचित

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि—

हाईकोर्ट ने मूल विवाद से हटकर एक व्यापक संवैधानिक प्रश्न पर निर्णय दे दिया जो न तो याचिका में उठाया गया था और न ही पक्षों द्वारा बहस का हिस्सा था।

इस प्रकार, हाईकोर्ट ने Judicial Overreach किया।


जनजातीय व्यक्तिगत कानून और संवैधानिक संरक्षण

भारत में जनजातीय समुदायों के लिए विशेष कानूनी संरक्षण हैं जैसे—

  • Fifth Schedule & Sixth Schedule
  • Forest Rights Act, 2006
  • PESA Act, 1996
  • विशेष customary law संरक्षण

इनका उद्देश्य है—

  • जनजातीय संस्कृति और परंपराओं का संरक्षण
  • भूमि व संसाधनों पर उनका ऐतिहासिक अधिकार बनाए रखना
  • सामाजिक ढाँचे की रक्षा

उत्तराधिकार से जुड़ी उनकी प्रथाएँ सदियों से चली आ रही हैं और उन्हें मनमाने ढंग से समाप्त नहीं किया जा सकता।


महिला अधिकार और सामाजिक विमर्श

अब सवाल उठता है—

क्या जनजातीय महिलाओं को उत्तराधिकार अधिकार देना गलत है?

बिल्कुल नहीं।
परंतु—

  • यह अधिकार विधायी प्रक्रिया से आना चाहिए
  • प्रशासनिक अधिसूचना और संसद संशोधन के माध्यम से
  • न कि अदालत की स्वतः पहल से

सुप्रीम कोर्ट ने कहा—

“न्यायालय संवेदनशील है और महिलाओं के अधिकार को मानता है, परंतु संवैधानिक ढाँचा सर्वोपरि है।”

यह निर्णय न्यायिक संतुलन और संवैधानिक नीति दोनों को दर्शाता है।


निर्णय का महत्व

पक्ष महत्व
जनजातीय अधिकार उनकी पहचान और परंपरा को संवैधानिक संरक्षण
न्यायिक मर्यादा अदालतें कानून नहीं बना सकतीं
विधायी सर्वोच्चता संसद और राष्ट्रपति के अधिकारों की पुष्टि
महिला अधिकार विमर्श न्यायालय संवेदनशील लेकिन संवैधानिक सीमाओं में

भविष्य के लिए संदेश

यह निर्णय दो स्पष्ट संदेश देता है—

1️⃣ जनजातीय कानूनों में सुधार होगा तो वह सरकार और संसद के माध्यम से होगा, न कि अदालत के आदेश से।
2️⃣ न्यायपालिका समाज सुधार की पक्षधर है परंतु संवैधानिक सीमाओं का पालन आवश्यक है।


कानूनी विश्लेषण और उदाहरण

📌 पूर्व के निर्णय

  • Maharashtra Tribal Case (2011) — सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ST महिलाओं को संपत्ति अधिकार देने के लिए कानूनी संशोधन आवश्यक है
  • State of Kerala vs N.M. Thomas (1976) — सामाजिक न्याय की व्याख्या पर सीमा निर्धारण

इन निर्णयों के अनुरूप ही वर्तमान फैसला आया।


आलोचनाएँ और सुझाव

कुछ आलोचक कह सकते हैं कि—

  • जनजातीय महिलाओं के अधिकार सीमित रह गए
  • आधुनिक न्याय मानकों के अनुसार सुधार होना चाहिए

परंतु न्यायालय ने सुधार को रोका नहीं—
उसने केवल कहा—

सुधार लोकतांत्रिक प्रक्रिया से आएं।

सरकार चाहे तो—

  • अनुसूचित जनजाति महिलाओं के अधिकारों पर अधिसूचना ला सकती है
  • संसद कानून संशोधित कर सकती है

यह Checks & Balances की भावना है।


निष्कर्ष

यह निर्णय भारतीय संविधान की शक्ति, संघीय ढाँचे और न्यायपालिका की मर्यादा का उत्कृष्ट उदाहरण है।

मुख्य बिंदु यह हैं—

  • जनजातीय समुदायों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम स्वचालित रूप से लागू नहीं होता
  • उच्च न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर संवैधानिक बदलाव करने का अधिकार नहीं है
  • सामाजिक न्याय आवश्यक है परंतु संवैधानिक प्रक्रिया सर्वोपरि है
  • संसद और राष्ट्रपति के अधिकारों का सम्मान किया गया

भारत का लोकतंत्र इसी संतुलन पर टिका है—जहाँ न्यायपालिका मार्गदर्शक है लेकिन विधायिका सर्वोच्च नीति निर्माता।


समापन

यह फैसला जनजातीय अधिकारों और महिलाओं के अधिकारों दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास है।

न्यायालय ने स्पष्ट संकेत दिया—

न्याय और संविधान दोनों समान रूप से आवश्यक हैं।

न्यायिक सक्रियता और संवैधानिक मर्यादा के बीच यह संतुलन भारत की लोकतांत्रिक संरचना को मजबूत करता है।