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आदर्श आकलन, न्याय की गारंटी: इलाहबाद हाई कोर्ट ने 17 वर्षीय किशोर के वयस्क मुकदमें को खारिज किया

“आदर्श आकलन, न्याय की गारंटी: इलाहबाद हाई कोर्ट ने 17 वर्षीय किशोर के वयस्क मुकदमें को खारिज किया; JJ बोर्डों व बाल न्यायालयों के लिए वैज्ञानिक दिशानिर्देश जारी”


प्रस्तावना

भारत में न्याय-विभाजन जब वयस्क और नाबालिग का हो, तब संवैधानिक गारंटी, वैज्ञानिक मूल्यांकन और विधिसम्मत प्रक्रिया की विशेष ज़रूरत होती है। हाल ही में इलाहबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है जिसमें उसने एक 17 वर्ष 6 महीने 27 दिन के किशोर को वयस्क की तरह मुकदमा चलाने का आदेश खारिज किया क्योंकि Preliminary Assessment प्रक्रिया में मानव मनोवैज्ञानिक परीक्षण (psychological test) पर्याप्त नहीं था। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि Section 15 के अंतर्गत JJ Act के द्वारा प्रदान की गई प्रारंभिक आकलन प्रक्रिया सिर्फ औपचारिकता नहीं हो सकती — बल्कि वह वैज्ञानिक, समग्र, और विधिवत होनी चाहिए।

यह फैसला Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015 के प्रावधानों की व्याख्या, बोर्डों और न्यायालयों की ज़िम्मेदारी, तथा न्याय के सिद्धांतों पर केंद्रित है। नीचे इस निर्णय का विस्तारित विश्लेषण है।


तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

  1. अभियुक्त किशोर (Revisionist) का विवरण
    — किशोर की उम्र 17 वर्ष, 6 महीने, 27 दिन थी। वह हत्या (Section 302 IPC) सहित अन्य गंभीर आरोपों के अधीन था।
    — Juvenile Justice Board (Prayagraj) ने Preliminary Assessment कर यह निर्धारित किया कि किशोर वयस्क की तरह मुकदमे का सामना कर सकता है।
    — इसके बाद Children’s Court ने इस निर्णय को बरकरार रखा।
  2. आकलन (Assessment) की कमी
    — Psychological Report में यह उल्लेख था कि किशोर “अपरिपक्व” है और “अपने कार्यों के परिणाम नहीं समझता” लेकिन रिपोर्ट में यह नहीं बताया गया कि उसने कौन-से टेस्ट दिए, IQ (बुद्धिमत्ताप्राप्ति) या EQ (भावनात्मक बुद्धिमत्ता) मापन कैसे किया गया, कितने अंक आए, या कौन-सी वैज्ञानिक उपकरण उपयोग किया गया।
    — आकलन सिर्फ कुछ सवाल-जवाब तक सीमित था, और सामाजिक पृष्ठभूमि, स्कूल रिकॉर्ड, पिछला व्यवहार, मानसिक स्वास्थ्य या कोई मानसिक रोग रोग-स्थिति का पर्याप्त उल्लेख नहीं था।
  3. न्यायालय की याचिका (Criminal Revision)
    — किशोर ने इलाहबाद हाई कोर्ट में Criminal Revision दायर की कि JJB और Children’s Court दोनों ने कानून की मांगों के विपरीत निर्णय लिया।
    — हाई कोर्ट ने यह पाया कि Preliminary Assessment आदेश विधि सम्मत नहीं था और वह आदेश खारिजी के योग्य था।

कानूनी प्रावधान एवं तर्क-पक्ष

Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015 — Section 15(1)

  • यह धारा उन “heinous offences” के मामलों में प्रारंभिक आकलन की व्यवस्था करती है जब नाबालिग (child in conflict with law) ऐसे अपराधों में शामिल हो। आकलन करना है कि किशोर की मानसिक और शारीरिक क्षमता, कानूनी परिणामों को समझने की क्षमता, और उस अपराध की परिस्थितियाँ जिनके अंतर्गत अपराध किया गया है
  • धारा के प्रावधान में यह भी है कि Juvenile Justice Board “may take assistance” psychologists, psycho-social workers या अन्य विशेषज्ञों की, ये निर्णय को बेहतर तरीके से करने के लिए। लेकिन विधि में यह नहीं बताया गया कि प्रक्रिया कैसे होनी चाहिए।

वरिष्ठ न्यायालय (Supreme Court) के निर्णय Barun Chandra Thakur v. Master Bholu

  • इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि Preliminary Assessment एक संवेदनशील परीक्षण है, और केवल गंभीर अपराधों या विषयों में जब किशोर की परिपक्वता व जिम्मेदारी के बारे में संदेह हो, तब ही किशोर को वयस्क मुकदमे के लिए अनुमति दी जा सकती है। ऐसे मामलों में, आकलन विधिवत, वैज्ञानिक और न्यायसंगत होना चाहिए।

न्यायशास्त्र: प्रक्रिया न्याय, संवैधानिक अधिकार और बाल न्याय

  • संवैधानिक सम्मान: नाबालिगों के साथ न्याय व्यवस्था में विशेष ध्यान दिया गया है कि उनके अधिकार सुरक्षित हों — मानव गरिमा, पुनरावृत्ति संभावना, सुधार की संभावना आदि।
  • Process of Law / Fair Trial का सिद्धांत लागू है — यह ज़रूरी है कि आकस्मिक निर्णय न हों, बल्कि स्पष्ट, ठोस आधारों पर निर्णय लिया जाए।
  • मानसिक स्वास्थ्य और वैज्ञानिक परीक्षण: केवल सामाजिक छवि या गुनाह की गंभीरता को देख कर वयस्क मुकदमे चलाना न्यायपालिका की भूमिका के लिए खतरनाक precedent हो सकता है।

इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा जारी Guidelines: नयी निर्देशावली

इलाहबाद हाई कोर्ट ने इस आदेश में JJ Boards और Children’s Courts के लिए विस्तारित और बाध्यकारी दिशा-निर्देश (mandatory guidelines) जारी किए हैं, जब भी Section 15 के अंतर्गत Preliminary Assessment किया जाए। ये दिशानिर्देश निम्नलिखित हैं:

  1. Psychological Testing
    • Board को ज़रूर मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट (psychologist’s report) मँगानी होगी जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख हो कि कौन-से परीक्षण किए गए हैं (उदा. Binet Kamat Test, Vineland Social Maturity Scale, Bhatiya Battery Test आदि)।
    • रिपोर्ट में IQ और EQ अंक स्पष्ट हों, और methodology बताएँ कि परीक्षण कैसे हुए, स्कोर कैसे निकाले गए।
  2. Physical and Mental Capacity & Consequences समझने की क्षमता
    • शारीरिक और मानसिक क्षमता का आकलन हो कि क्या किशोर अपराध करने के लिए सक्षम है, क्या वह कार्रवाई के परिणामों को समझता है।
    • यह देखा जाए कि किशोर को क्या परिस्थितियाँ प्रभावित करती हैं — सामाजिक, पारिवारिक, शिक्षा-प्रदर्शन, मानसिक रोग/बाधाएँ आदि।
  3. सामाजिक पृष्ठभूमि रिपोर्ट और सामाजिक जांच
    • Social Investigation Report (SIR) और Social Background Report (SBR) जो किशोर की पारिवारिक, आर्थिक, शैक्षिक स्थिति आदि बताएँ, मंगाना अनिवार्य।
    • जिला स्तर या बाल कल्याण पुलिस अधिकारी आदि से पुष्टि आवेदन करना कि किशोर के पिछले सुधारात्मक कार्यक्रम, स्कूल रिकॉर्ड, पिछला व्यवहार आदि देखें जाएँ।
  4. मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों की भागीदारी अनिवार्य
    • यदि बोर्ड में child psychologist या child psychiatrist ना हो, तो बाहरी विशेषज्ञों की सहायता लेनी होगी। “May” का प्रयोग व्यावहारिक रूप से “must” की तरह होना चाहिए जब बोर्ड-में विशेषज्ञ न हो।
    • यदि विशेषज्ञ भाग न लें, तो बोर्ड को स्पष्ट कारण रिकॉर्ड करना होगा।
  5. पूर्व अपराध इतिहास और सामाजिक व्यवहार
    • किशोर के पिछले मामले, यदि कोई हों, उनका उल्लेख और उनका प्रभाव देखा जाए।
    • क्या किशोर कभी कानूनी हिरासत से भागे हैं, क्या स्कूल रिकॉर्ड में अव्यवस्था या सामाजिक व्यवहार संबंधी शिकायतें हैं आदि।
  6. निर्णय लेखन (Reasoned Orders)
    • JJ Board और Children’s Court को प्रत्येक आकलन के निर्णय में स्पष्ट, ठोस और प्रयुक्त परीक्षणों का विवरण देना होगा — क्यों उसने अपराध की गंभीरता, सामाजिक पृष्ठभूमि, किशोर की भावनात्मक स्थिति आदि को आधार मान लिया।
  7. ताज़ा आकलन (Fresh Assessment) जब प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण हो
    • यदि Preliminary Assessment कानून के अनुरूप न हो, तो आदेश खारिज होगा और नया आकलन करना होगा।
  8. राज्य स्तर की अनुपालन और प्रसार
    • यह निर्णय इलाहबाद HC ने राज्य में सभी JJ Boards/Children’s Courts को निर्देश दिया कि यह आदेश उनके लिए बाध्यकारी है।

न्यायालय की समीक्षा और तर्कों का विश्लेषण

कमजोरियाँ और न्यायालय की आलोचना

  • “गट फीलिंग” (Gut feeling) या “सामान्य आकलन” (common sense) पर आधारित निर्णय की आलोचना की गई। न्यायालय ने कहा कि केवल सवाल-जवाब या सामाजिक रिपोर्ट पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं है।
  • रिपोर्ट का शाब्दिक रूप से “अपरिपक्वता” या “परिणाम की समझ न होना” कहना लेकिन उसके पीछे प्रयुक्त परीक्षणों व मापन का विवरण न देना — यह न्यायशास्त्र की दृष्टि से उपयुक्त नहीं माना गया।

विपक्षी तर्क

  • राज्य का तर्क हो सकता है कि Preliminary Assessment की प्रक्रिया समयावधि में होनी चाहिए, विशेषज्ञों की उपलब्धता नहीं हो सकती हर जिले में।
  • गवाहों या प्रायोगिक मामलों में यह तर्क हो सकता है कि ऐसे परीक्षणों से देरी हो सकती है; लेकिन न्यायालय ने इसे संतुलित करते हुए कहा कि यदि विशेषज्ञ न हों, दूसरे जिलों या राज्य स्तरीय संसाधन से सहायता ली जाए।

संवैधानिक एवं विधिक महत्व

  • न्यायपालिका की संवेदनशीलता: किशोरों के मामले में न्यायप्रक्रिया संवेदनशील होनी चाहिए क्योंकि निर्णय उनके जीवन पर गहरा असर डालता है। यह संवैधानिक अधिकारों — जीवन, गरिमा, समानता — से जुड़ा है।
  • मानवाधिकार और बचपन का संरक्षण: भारत भी अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन्स का हिस्सा है — जैसे UN Convention on the Rights of the Child — जो बच्चों के सुधार और पुनर्स्थापना को प्राथमिकता देता है।
  • वैज्ञानिक न्यायवाद (Scientific adjudication): मात्र कानूनी व सामाजिक सूचनाओं पर नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक, शैक्षिक प्रमाणों पर आधारित न्याय; यह निर्णय राष्ट्रीय प्रथा को इसके अनुरूप लाने की दिशा ले गया।

संभावित प्रभाव और चुनौतियाँ

सकारात्मक प्रभाव

  1. बेहतर आकलन और न्याय की गुणवत्ता
    • विशेषज्ञों के प्रयोग से न्याय की गुणवत्ता बढ़ेगी, किशोरों को निर्णय की गंभीरता के आधार पर उपयुक्त कोर्ट में ट्रायल का अवसर मिलेगा।
  2. Board/Children’s Courts की जवाबदेही
    • Boards को अब सिर्फ औपचारिक रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं होना होगा; उन्हें स्पष्ट आयामों-जैसे IQ, EQ इत्यादि-पर रिपोर्ट की मांग करनी होगी।
  3. मानकीकरण और प्रशिक्षण
    • आवश्यक हो जाएगा कि राज्य-स्तर पर JJ Board सदस्यों, बाल मनोवैज्ञानिकों आदि को प्रशिक्षण मिले, परीक्षण उपकरण उपलब्ध हों।
  4. विधायी सुधार हेतु प्रेरणा
    • कोर्ट ने खतरा बताया कि विधायिका को राष्ट्रीय दिशानिर्देश जारी करना चाहिए; यह फैसला विधायी पहल को प्रोत्साहित करेगा।

चुनौतियाँ

  1. विशेषज्ञों की कमी
    • तमाम जिलों में child psychology या child psychiatry में प्रशिक्षित विशेषज्ञ नहीं होंगे; उनको उपलब्ध कराना और सेवाएँ सुनिश्चित करना समय लगेगा।
  2. परीक्षण उपकरणों का चयन व उपलब्धता
    • IQ, EQ आदि परीक्षणों के लिए विश्वसनीय, मान्य उपकरण होंगे, परन्तु सभी जगहों पर परीक्षण सामग्री, लैब व psychologist सुविधा न हो।
  3. प्रक्रिया में देरी
    • नई गाइडलाइन्स के पालन से आकलन प्रक्रिया लंबी हो सकती है, जिससे केस की सुनवाई में देरी हो सकती है; यह पक्षकारों के लिए चिंता का विषय होगा।
  4. अदालतों व बोर्डों द्वारा कार्यान्वयन की समस्या
    • आदेश का पालन सुनिश्चित करना होगा; अगर आदेश सिर्फ कागजी हों, पर व्यवहार नहीं हों, तो न्याय नहीं होगा।

निष्कर्ष

यह इलाहबाद ऑर्डर Juvenile Justice प्रथा में एक परिवर्तनकारी कदम है। यह सुनिश्चित करता है कि:

  • किशोरों को बिना ठोस वैज्ञानिक परीक्षण के वयस्क मुकदमे में ट्रायल के लिए न भेजा जाए।
  • Preliminary Assessment सिर्फ फॉर्मेलिटी न बनकर, जीवंत, वस्तुनिष्ठ और न्यायसंगत प्रक्रिया हो।
  • न्यायपालिका, न्यायप्रवर्तन और बाल कल्याण व्यवस्था को एक साथ मिलकर काम करना होगा, ताकि बच्चों की मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए फैसला किया जाए।

यह निर्णय न केवल याचिकाकर्ता किशोर के लिए है, बल्कि आने वाले सभी किशोरों के न्याय के अधिकार की रक्षा का संदेश है। बाल न्याय प्रणाली के प्रति यह न्यायालय का अगला कदम है — न्याय भले ही समय लगे, लेकिन वह वैज्ञानिक, संवेदनशील और संवैधानिक हो।