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अविवाहित बालिग बेटी का भरण-पोषण अधिकार: दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फैसला

अविवाहित बालिग बेटी का भरण-पोषण अधिकार: दिल्ली हाईकोर्ट का ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फैसला

भूमिका

       भारतीय समाज में लंबे समय से यह धारणा प्रचलित रही है कि पिता की भरण-पोषण की जिम्मेदारी केवल नाबालिग बच्चों तक सीमित होती है। जैसे ही बेटी 18 वर्ष की आयु पूरी करती है, उसे कानूनी रूप से “बालिग” मान लिया जाता है और यह समझ लिया जाता है कि अब वह स्वयं अपने जीवनयापन की जिम्मेदारी उठा सकती है।
लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट के हालिया फैसले ने इस सोच को कानूनी और सामाजिक दोनों स्तरों पर चुनौती दी है

      दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि अविवाहित बालिग बेटी भी अपने पिता से भरण-पोषण की मांग कर सकती है, बशर्ते वह स्वयं कमाने में सक्षम न हो। यह फैसला न केवल कानून की मानवीय व्याख्या प्रस्तुत करता है, बल्कि महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा को भी मजबूती देता है।


मामले की पृष्ठभूमि

       इस मामले में एक अविवाहित बालिग बेटी ने अपने पिता से भरण-पोषण की मांग की थी। पिता का तर्क था कि:

  • बेटी अब बालिग है
  • वह पढ़ी-लिखी है
  • इसलिए उस पर भरण-पोषण की कोई कानूनी जिम्मेदारी नहीं बनती

इसके विपरीत, बेटी ने दलील दी कि:

  • वह अभी पढ़ाई कर रही है
  • उसकी कोई आय का स्रोत नहीं है
  • मां की आय भी पर्याप्त नहीं है
  • पिता सक्षम होने के बावजूद सहायता नहीं कर रहे

मामला दिल्ली हाईकोर्ट पहुंचा, जहां अदालत ने संवेदनशील, न्यायसंगत और प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाया।


दिल्ली हाईकोर्ट का स्पष्ट निष्कर्ष

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा:

“केवल बालिग हो जाना किसी बेटी को अपने आप आत्मनिर्भर नहीं बना देता।
यदि अविवाहित बेटी स्वयं कमाने में सक्षम नहीं है, तो पिता की जिम्मेदारी बनी रहती है कि वह उसका भरण-पोषण करे।”

अदालत ने यह भी कहा कि:

  • भरण-पोषण का अधिकार सिर्फ उम्र से नहीं, बल्कि परिस्थितियों से तय होता है
  • पिता का कर्तव्य केवल कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक भी है

कानूनी आधार: अदालत ने किन कानूनों पर भरोसा किया

1. दंड प्रक्रिया संहिता / BNSS की भावना

      हालांकि दंड प्रक्रिया संहिता (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता – BNSS) की धारा 125 का सीधा प्रयोग सामान्यतः नाबालिग बच्चों और पत्नी तक सीमित माना जाता है, लेकिन अदालत ने इसकी उद्देश्यपरक व्याख्या (Purposive Interpretation) की।

अदालत ने कहा कि:

  • भरण-पोषण कानूनों का उद्देश्य गरीबी और भुखमरी से बचाना है
  • यदि बालिग बेटी आर्थिक रूप से असहाय है, तो उसे कानून के संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता

2. हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956

अदालत ने हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 का भी उल्लेख किया, जिसके अनुसार:

  • माता-पिता की जिम्मेदारी होती है कि वे अपनी संतान का पालन-पोषण करें
  • यह जिम्मेदारी तब तक बनी रहती है जब तक संतान स्वयं का भरण-पोषण करने में सक्षम न हो

यह अधिनियम विशेष रूप से यह मानता है कि अविवाहित बेटी की स्थिति विवाह तक अलग होती है।


3. संविधान के मूल्यों का सहारा

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 (समानता और लैंगिक भेदभाव का निषेध) की भावना को भी महत्व दिया।

अदालत ने कहा:

  • बेटियों को केवल इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वे बालिग हैं
  • समान अवसर और सम्मानजनक जीवन का अधिकार बेटियों को भी प्राप्त है

“कमाने में सक्षम” होने का क्या अर्थ है?

इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अदालत ने “कमाने में सक्षम” शब्द की गहराई से व्याख्या की।

अदालत ने स्पष्ट किया:

  • केवल शिक्षित होना = कमाने में सक्षम होना नहीं
  • केवल डिग्री होना = आत्मनिर्भर होना नहीं
  • जब तक बेटी के पास वास्तविक आय का स्रोत न हो, तब तक वह निर्भर मानी जाएगी

यदि बेटी:

  • पढ़ाई कर रही है
  • नौकरी नहीं कर पा रही
  • किसी बीमारी या मानसिक स्थिति से जूझ रही
    तो उसे भरण-पोषण का अधिकार मिलेगा।

पिता की जिम्मेदारी: केवल कानूनी नहीं, नैतिक भी

दिल्ली हाईकोर्ट ने इस फैसले में एक महत्वपूर्ण सामाजिक संदेश दिया:

“पिता का दायित्व कानून की सीमाओं से बड़ा है।
संतान का पालन-पोषण केवल कानूनी बाध्यता नहीं, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी है।”

अदालत ने यह भी कहा कि:

  • पिता की आर्थिक क्षमता (Income & Assets) का मूल्यांकन किया जाएगा
  • यदि पिता सक्षम है और जानबूझकर सहायता से बच रहा है, तो यह अनुचित है

समाज पर इस फैसले का प्रभाव

1. महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा

यह फैसला:

  • अविवाहित बेटियों को आर्थिक सुरक्षा देता है
  • उन्हें शिक्षा पूरी करने का अवसर प्रदान करता है
  • जल्दबाजी में विवाह के दबाव को कम करता है

2. पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती

भारतीय समाज में अक्सर माना जाता है कि:

  • बेटी “पराया धन” है
  • बालिग होते ही उसकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है

यह फैसला इस सोच को कानूनी रूप से खारिज करता है।


3. न्यायिक संवेदनशीलता का उदाहरण

यह निर्णय दर्शाता है कि:

  • अदालतें कानून को केवल शब्दों में नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टि से देखती हैं
  • न्याय केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय भी है

क्या यह अधिकार असीमित है?

नहीं। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि:

  • यह अधिकार स्वतः नहीं मिलेगा
  • बेटी को यह साबित करना होगा कि:
    • वह अविवाहित है
    • वह स्वयं कमाने में असमर्थ है
    • पिता आर्थिक रूप से सक्षम है

यदि बेटी जानबूझकर काम नहीं कर रही या पर्याप्त आय है, तो अदालत भरण-पोषण से इनकार भी कर सकती है।


भविष्य में कानूनी प्रभाव

इस फैसले का प्रभाव:

  • निचली अदालतों के लिए मार्गदर्शक निर्णय (Guiding Precedent) बनेगा
  • पारिवारिक कानूनों की मानवीय व्याख्या को बढ़ावा देगा
  • बेटियों के अधिकारों को नई मजबूती देगा

आलोचना और विरोध के स्वर

कुछ आलोचकों का कहना है कि:

  • इससे पिता पर अनावश्यक आर्थिक बोझ पड़ेगा
  • बालिग होने के बाद आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिलना चाहिए

लेकिन अदालत का स्पष्ट जवाब है:

  • आत्मनिर्भरता एक लक्ष्य है, पर तत्काल वास्तविकता नहीं
  • जब तक बेटी सक्षम न हो, तब तक संरक्षण आवश्यक है

निष्कर्ष

      दिल्ली हाईकोर्ट का यह फैसला केवल एक कानूनी निर्णय नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का प्रतीक है। यह निर्णय बताता है कि:

  • कानून का उद्देश्य कठोरता नहीं, बल्कि न्याय और करुणा है
  • बेटियों का सम्मान और सुरक्षा समाज की जिम्मेदारी है
  • पिता का दायित्व उम्र की सीमा से नहीं, बल्कि संतान की आवश्यकता से तय होता है

अविवाहित बालिग बेटी का भरण-पोषण अधिकार — एक कदम समानता, गरिमा और सामाजिक न्याय की ओर।