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अलग रह रहे पति को भी ‘लॉस ऑफ कंसोर्टियम’ का मुआवज़ा देने का अधिकार: सड़क दुर्घटना में पत्नी की मृत्यु पर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय

अलग रह रहे पति को भी ‘लॉस ऑफ कंसोर्टियम’ का मुआवज़ा देने का अधिकार: सड़क दुर्घटना में पत्नी की मृत्यु पर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय

        मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि सड़क दुर्घटना में पत्नी की मृत्यु होने पर उसका estranged husband (अलग रह रहा पति) भी लॉस ऑफ कंसोर्टियम (Loss of Consortium) के अंतर्गत मुआवज़े का हकदार है। यह फैसला न केवल मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति कानून की न्यायसंगत व्याख्या प्रस्तुत करता है, बल्कि वैवाहिक संबंधों की संवेदनशीलता और क्षतिपूर्ति कानून की मानवीय दृष्टि को भी रेखांकित करता है। कोर्ट ने कहा कि पति-पत्नी भले ही साथ न रह रहे हों, किंतु वैवाहिक संबंध कानूनी रूप से कायम रहता है, इसलिए पति को सहगमन (consortium) की क्षति के लिए मुआवज़ा मिलना चाहिए। यह निर्णय मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत दिए जाने वाले मुआवज़े के दायरे को और विस्तार देता है।


प्रस्तावना: लॉस ऑफ कंसोर्टियम और भारतीय न्यायालयों की दृष्टि

        भारतीय न्यायालयों ने बार-बार यह दोहराया है कि लॉस ऑफ कंसोर्टियम केवल वैवाहिक संबंधों में साझेदारी, सहारा, स्नेह, मानसिक समर्थन और सामाजिक सुरक्षा की क्षति से संबंधित है। सुप्रीम कोर्ट ने भी Magma General Insurance Co. Ltd. v. Nanu Ram (2018) में स्पष्ट किया था कि पति, पत्नी, बच्चे और माता-पिता सभी को अलग-अलग प्रकार के कंसोर्टियम का अधिकार है।

       यहां तक कि यदि पति-पत्नी अलग रह रहे हों, लेकिन उनका विवाह विधिक रूप से जीवित है, तो पति को भी सहगमन के अधिकार की क्षति होती है, जो मुआवज़े का आधार है। MP हाईकोर्ट ने इसी सिद्धांत को लागू करते हुए पति को मुआवज़े का हकदार माना।


मामले की पृष्ठभूमि

        याचिकाकर्ता पत्नी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई। पत्नी परिवार से अलग रह रही थी और पति से दूरी बनी हुई थी। कुछ समय से दोनों साथ नहीं रह रहे थे, जिससे दावा विवादित हो गया। दुर्घटना के बाद मृतका के पिता ने मुआवज़े का दावा दायर किया जिसमें पति को शामिल नहीं किया गया। बीमा कंपनी ने आपत्ति उठाई कि पति को मुआवज़ा नहीं मिल सकता क्योंकि वह पत्नी से अलग रह रहा था और वैवाहिक जीवन में कोई योगदान नहीं दे रहा था।

       ट्रिब्यूनल ने भी इसी आधार पर पति को मुआवज़े का लाभ नहीं दिया। इस आदेश को चुनौती देते हुए पति हाईकोर्ट पहुंचा।


हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य मुद्दे

  1. क्या अलग रह रहा पति मृतका के legal representative की परिभाषा में आता है?
  2. क्या ऐसे पति को loss of consortium के तहत मुआवज़ा दिया जा सकता है?
  3. क्या पति की जीवनशैली और पत्नी से दूरी मुआवज़े के अधिकार को प्रभावित करती है?

हाईकोर्ट का विश्लेषण

1. पति ‘वैध उत्तराधिकारी’ (Legal Representative) है

         कोर्ट ने कहा कि मोटर वाहन अधिनियम (Motor Vehicles Act, 1988) के तहत legal representative की परिभाषा व्यापक है। इसमें वे सभी व्यक्ति शामिल हैं जो मृतक के वैधानिक उत्तराधिकारी हों या जिन पर उसकी मृत्यु का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हो।

       चूंकि विवाह कानूनी रूप से विद्यमान था और किसी अदालत ने विवाह विच्छेद (divorce) प्रदान नहीं किया था, इसलिए पति मृतका का कानूनी प्रतिनिधि है।


2. अलग रहने से कंसोर्टियम का अधिकार समाप्त नहीं होता

कोर्ट ने कहा कि:

  • वैवाहिक बंधन कानूनी रूप से टूटा नहीं है।
  • साथ न रहने के बावजूद सहगमन (consortium) के तत्व—स्नेह, मानसिक समर्थन, सामाजिक मान्यता—कानूनी दृष्टि से समाप्त नहीं हो जाते।
  • Loss of spousal consortium एक भावनात्मक और मानवीय क्षति है, जिसे अलग रहने के आधार पर नकारा नहीं जा सकता।

अदालत ने कहा कि दंपत्ति यदि किसी विवाद या परिस्थिति के कारण अलग भी रह रहे हों, तब भी पत्नी की मृत्यु पति के जीवन में भावनात्मक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शून्य छोड़ती है।


3. सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला

MP हाईकोर्ट ने Magma Insurance (2018) का हवाला देते हुए कहा कि:

  • Consortium का उद्देश्य केवल आश्रित आय का नुकसान नहीं है।
  • यह सहगमन, स्नेह, प्रेम, संगति और भावनात्मक समर्थन के नुकसान से जुड़ा है।
  • भावनाएं距离 कम होने से समाप्त नहीं होतीं।

हाईकोर्ट का निर्णय

अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा:

  • पति को loss of spousal consortium के तहत मुआवज़ा देने से इनकार करना कानूनन गलत है
  • दावा न्यायाधिकरण ने पति को बाहर रखकर गलती की।
  • पति को मुआवज़े का लाभ दिया जाए और बीमा कंपनी राशि का भुगतान करे।

इस निर्णय की प्रमुख विशेषताएँ

  1. न्याय का मानवीय दृष्टिकोण
    कोर्ट ने माना कि वैवाहिक संबंध केवल साथ रहने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका सामाजिक और कानूनी महत्व बहुत अधिक है।
  2. ‘कंसोर्टियम’ की व्यापक व्याख्या
    पहले न्यायालय मुख्यतः पति-पत्नी के साथ रह रहे होने को महत्व देते थे। यह निर्णय बताता है कि consortium भावनात्मक अधिकार है, शारीरिक उपस्थिति की शर्त नहीं।
  3. Separated couples के लिए महत्वपूर्ण मिसाल
    यह फैसला तलाकित दंपत्तियों पर लागू नहीं होता, लेकिन अलग रह रहे दंपत्तियों पर जरूर लागू होता है।
  4. बीमा कंपनियों को स्पष्ट संदेश
    केवल अलग रहने के आधार पर मुआवज़ा रोकना अवैध है।

कानूनी महत्व (Legal Implications)

1. मोटर वाहन अधिनियम के मामलों में uniformity

यह निर्णय कई मामलों में लागू होगा जहाँ पति-पत्नी अलग रहते हैं पर विवाह कायम रहता है। अब ट्रिब्यूनल पति को consortium न देने का आधार नहीं बना सकते।

2. Consortium के नुकसान का सामाजिक पहलू मजबूत

अदालत ने consortium को केवल पति-पत्नी की विद्यमान पारिवारिक स्थिति तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे वैवाहिक संबंध के मूल तत्वों से जोड़ा।

3. Compensation के दायरे में न्यायपूर्ण वृद्धि

इस निर्णय से compensation award में spouse को दी जाने वाली राशि और स्पष्ट हो गई है—आमतौर पर ₹40,000–₹50,000 को आधार माना जाता है, जिसे बढ़ाया जा सकता है।


समाज और परिवार पर प्रभाव

यह निर्णय भारतीय समाज की बदलती वास्तविकताओं को दर्शाता है:

  • आज बहुत से पति-पत्नी अलग रहते हुए भी तलाक नहीं लेते।
  • कई बार आर्थिक, सामाजिक या व्यावहारिक कारणों से separation होता है।
  • ऐसे में दुर्घटना जैसे मामले में पति को अलग रख देना न्यायसंगत नहीं।

MP हाईकोर्ट का निर्णय इस संवेदनशीलता को पहचानता है।


निष्कर्ष

         मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का यह फैसला एक महत्वपूर्ण कानूनी विकास है, जिसने consortium के अधिकार को और अधिक मानव-केंद्रित बनाया है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि:

  • पत्नी की मृत्यु पति के जीवन में भावनात्मक और सामाजिक क्षति लाती है, भले ही दोनों अलग रह रहे हों।
  • ऐसे में मुआवज़े के लिए पति को बाहर रखना न्याय और कानून के उद्देश्य के विपरीत है।

       यह निर्णय न केवल मोटर दुर्घटना मुआवज़ा कानून की प्रगतिशील व्याख्या प्रस्तुत करता है, बल्कि भारतीय पारिवारिक संबंधों की वास्तविकता को भी स्वीकार करता है। यह आदेश निश्चित ही भविष्य के अनेक मामलों में मार्गदर्शक सिद्ध होगा और न्यायिक प्रणाली में संवेदनशीलता का नया आयाम जोड़ेगा।