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‘अर्शद नियाज़ ख़ान बनाम राज्य झारखंड एवं अन्य’ (2025) – आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग और न्यायिक विवेक की भूमिका

‘अर्शद नियाज़ ख़ान बनाम राज्य झारखंड एवं अन्य’ (2025) – आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग और न्यायिक विवेक की भूमिका


1. प्रस्तावना

भारत में न्यायिक प्रणाली का मूल उद्देश्य केवल अपराधियों को दंडित करना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि न्याय का प्रयोग किसी के खिलाफ व्यक्तिगत प्रतिशोध, बदले की भावना या उत्पीड़न के लिए न किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने हमेशा यह सुनिश्चित किया है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो। ‘अर्शद नियाज़ ख़ान बनाम राज्य झारखंड एवं अन्य’ (2025) का निर्णय इस सिद्धांत का स्पष्ट उदाहरण है, जिसमें न्यायालय ने कहा कि यदि आपराधिक प्रक्रिया का उपयोग किसी की निजी संतुष्टि, प्रतिशोध या राजनीतिक और व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जाए, तो यह समाज में विश्वास की नींव को कमजोर कर सकता है और न्यायिक तंत्र पर अनावश्यक दबाव डाल सकता है।

अत्यंत महत्वपूर्ण है कि न्यायपालिका सतर्क रहे और ऐसे मामलों को रोकने के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन दें। यह मामला विशेष रूप से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग केवल एक व्यक्तिगत संपत्ति विवाद के लिए किया गया था, जिससे समाज में न्याय व्यवस्था और कानून के प्रति अविश्वास फैल सकता था।


2. मामले का संक्षिप्त विवरण

यह मामला एक संपत्ति बिक्री समझौते से उत्पन्न विवाद से संबंधित है। अर्शद नियाज़ ख़ान ने 16 फरवरी 2013 को शिकायतकर्ता, मोहम्मद मुस्तफा, के साथ दो संपत्तियों के विक्रय के लिए समझौता किया। इस समझौते के तहत अर्शद नियाज़ ख़ान को कुल ₹43,00,000 अग्रिम राशि के रूप में प्राप्त हुए।

समझौते के बावजूद, आठ वर्षों तक संपत्ति का विक्रय नहीं हुआ और न ही अग्रिम राशि वापस की गई। इसके परिणामस्वरूप शिकायतकर्ता ने 29 जनवरी 2021 को पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। शिकायत के आधार पर 8 फरवरी 2021 को हिंदपीरी पुलिस स्टेशन में FIR No.18/2021 दर्ज की गई, जिसमें धोखाधड़ी (धारा 420 IPC), आपराधिक विश्वासघात (धारा 406 IPC) और आपराधिक साजिश (धारा 120B IPC) के आरोप लगाए गए।

यह मामला केवल संपत्ति विवाद का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि कैसे दीर्घकालिक व्यावसायिक और व्यक्तिगत विवाद आपराधिक प्रक्रिया का बहाना बन जाते हैं।


3. न्यायालय की अवलोकन और तर्क

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में विस्तृत तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा:

  1. धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात के आरोपों का विरोधाभास:
    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात दोनों आरोप एक ही तथ्यों पर एक साथ नहीं लगाए जा सकते क्योंकि उनके कानूनी तत्व परस्पर विरोधी हैं। धोखाधड़ी में पूर्व मंशा और छल की आवश्यकता होती है, जबकि आपराधिक विश्वासघात में संपत्ति पर अनुचित कब्जे का विषय होता है।
  2. अनुबंध का उल्लंघन और आपराधिक प्रक्रिया:
    केवल अनुबंध का उल्लंघन या भुगतान में देरी किसी भी आपराधिक अपराध की श्रेणी में नहीं आता। अनुबंधिक विवादों को आम तौर पर सिविल अदालतों में निपटाया जाना चाहिए।
  3. मंशा का अभाव:
    शिकायतकर्ता ने यह साबित नहीं किया कि समझौते के समय अर्शद नियाज़ ख़ान के पास किसी भी प्रकार की धोखाधड़ी या विश्वासघात की मंशा थी। न्यायालय ने यह भी कहा कि अपराध की मंशा का अभाव होने पर आपराधिक प्रक्रिया लागू नहीं हो सकती।

निष्कर्षतः, न्यायालय ने झारखंड उच्च न्यायालय के आदेश को निरस्त कर दिया और FIR और आपराधिक प्रक्रिया को रद्द कर दिया।


4. आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग: कानूनी और सामाजिक दृष्टिकोण

यह मामला विशेष रूप से आपराधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग पर प्रकाश डालता है। इसमें कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं:

  • व्यक्तिगत और व्यावसायिक विवाद का आपराधिककरण:
    यह देखा गया कि कई बार व्यक्तिगत मतभेद, संपत्ति विवाद या आर्थिक हितों के लिए FIR दर्ज करवाई जाती है, जिससे न केवल आरोपी का उत्पीड़न होता है, बल्कि न्यायिक प्रणाली पर भी बोझ पड़ता है।
  • सामाजिक प्रभाव:
    ऐसे दुरुपयोग से समाज में असमानता और अविश्वास बढ़ता है। लोग न्यायिक प्रक्रिया को निष्पक्ष नहीं मानते और समाज में कानून के प्रति सम्मान कम हो जाता है।
  • न्यायपालिका का दायित्व:
    न्यायालय को vigilantly यह सुनिश्चित करना होता है कि आपराधिक प्रक्रिया केवल वास्तविक अपराधों के लिए ही इस्तेमाल हो। यह जनता के विश्वास को बनाए रखने और न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य है।
  • पूर्वसावधानी और विवेकपूर्ण न्याय:
    इस तरह के मामलों में न्यायालय का दायित्व है कि वे जल्दी निर्णय लें और किसी भी संभावित उत्पीड़न या दुरुपयोग को रोकें। यह न केवल न्याय की रक्षा करता है बल्कि अपराधियों और पीड़ितों के बीच संतुलन भी बनाए रखता है।

5. वैश्विक दृष्टिकोण और तुलनात्मक अध्ययन

सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग एक गंभीर मुद्दा है। विकसित देशों में जैसे कि अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम में, न्यायपालिका ने कई बार स्पष्ट किया है कि किसी भी कानूनी प्रक्रिया का व्यक्तिगत प्रतिशोध के लिए दुरुपयोग अपराध के स्तर को कम करता है और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाता है।

मुख्य अंतर:

  • विकसित न्यायिक तंत्र में अक्सर “मिसयूज़ ऑफ प्रोसीज़र” (Misuse of Procedure) के तहत याचिका दायर की जाती है।
  • भारत में यह प्रवृत्ति बढ़ रही है और सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि FIR और आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त रुख अपनाना आवश्यक है।

इस तरह, ‘अर्शद नियाज़ ख़ान’ मामला भारतीय संदर्भ में वैश्विक न्यायिक दृष्टिकोण के अनुरूप न्यायपालिका की सतर्कता का प्रतीक बन गया।


6. निष्कर्ष और अनुशंसाएँ

‘अर्शद नियाज़ ख़ान बनाम राज्य झारखंड एवं अन्य’ (2025) का निर्णय इस बात का प्रमाण है कि:

  1. आपराधिक प्रक्रिया का मूल उद्देश्य अपराधियों को दंडित करना है, न कि व्यक्तिगत प्रतिशोध।
  2. न्यायालयों को vigilantly यह सुनिश्चित करना चाहिए कि FIR और आपराधिक प्रक्रिया केवल वास्तविक अपराधों के लिए इस्तेमाल हो।
  3. अनुबंधिक या व्यक्तिगत विवादों को आपराधिक दायरों में बदलने से समाज में अविश्वास और न्यायिक बोझ बढ़ता है।
  4. न्यायपालिका के सतर्क और विवेकपूर्ण रवैये से ही समाज में कानून और न्यायपालिका के प्रति विश्वास मजबूत होता है।

सार:
यह मामला कानून और न्यायपालिका के प्रति समाज के विश्वास को बनाए रखने का उदाहरण है। न्यायिक विवेक और सतर्कता के बिना, आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग समाज और न्याय व्यवस्था दोनों के लिए खतरा बन सकता है।