अपीलीय न्यायालय की सीमित शक्तियाँ: उच्च न्यायालय द्वारा मध्यस्थता आदेशों में हस्तक्षेप की सीमा स्पष्ट

अपीलीय न्यायालय की सीमित शक्तियाँ: उच्च न्यायालय द्वारा मध्यस्थता आदेशों में हस्तक्षेप की सीमा स्पष्ट

भूमिका
भारतीय न्याय व्यवस्था में मध्यस्थता (Arbitration) को एक प्रभावी वैकल्पिक विवाद निवारण प्रणाली (ADR) के रूप में मान्यता प्राप्त है। Arbitration and Conciliation Act, 1996 के तहत धारा 34 और धारा 37 मध्यस्थता पुरस्कार (Arbitral Award) के खिलाफ न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाएं तय करती हैं। हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में, उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि धारा 37 के अंतर्गत अपीलीय न्यायालय की शक्तियाँ सामान्य अपीलीय अधिकार क्षेत्र के समान नहीं होतीं, बल्कि सीमित होती हैं।

प्रसंग और निर्णय का सार
उच्च न्यायालय के इस निर्णय में यह दोहराया गया कि मध्यस्थता आदेशों के खिलाफ अपील में न्यायालय की भूमिका केवल संवीक्षणीय (supervisory) होती है, न कि व्यापक पुनः परीक्षण की। धारा 37 के तहत हस्तक्षेप तभी किया जा सकता है जब अधीनस्थ न्यायालय ने या तो अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग नहीं किया हो या फिर उसकी सीमाओं का अतिक्रमण किया हो।

न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि धारा 34 के अंतर्गत जिन सीमित आधारों पर मध्यस्थता पुरस्कार को चुनौती दी जा सकती है, वही सीमाएं धारा 37 के तहत अपीलीय अधिकार क्षेत्र पर भी लागू होती हैं। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई पक्ष मध्यस्थता आदेश के विरुद्ध अपील करता है, तो वह केवल उन्हीं आधारों पर अपील कर सकता है जो धारा 34 में निर्दिष्ट हैं, जैसे कि:

  • मध्यस्थता प्रक्रिया विधिसम्मत नहीं थी।
  • न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ।
  • सार्वजनिक नीति के प्रतिकूल निर्णय दिया गया।

न्यायालय की दृष्टिकोण
उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि अपीलीय न्यायालय की भूमिका पुनर्विचारकर्ता (reviewer) या निर्णय लेने वाला (decision-maker) के रूप में नहीं है, बल्कि एक पर्यवेक्षक (supervisor) के रूप में सीमित है। इसलिए यदि अधीनस्थ न्यायालय ने न्यायसंगत तरीके से मध्यस्थता पुरस्कार की समीक्षा की है, तो अपीलीय न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, भले ही वह निर्णय भिन्न हो सकता था।

न्यायालय द्वारा अपील की अनुमति
इस मामले में न्यायालय ने पाया कि अधीनस्थ न्यायालय ने या तो अधिकार क्षेत्र का दुरुपयोग किया है या फिर प्रक्रिया की चूक की है। इसलिए न्यायालय ने अपने सीमित अधिकारों के तहत अपील को स्वीकार किया और हस्तक्षेप किया। यह निर्णय स्पष्ट करता है कि न्यायालय केवल असाधारण परिस्थितियों में ही मध्यस्थता प्रक्रिया में हस्तक्षेप करेगा।

महत्वपूर्ण बिंदु

  • धारा 37 के तहत अपीलीय अधिकार क्षेत्र धारा 34 की सीमाओं से ही संचालित होता है।
  • सामान्य अपीलों की तरह सबूतों की दोबारा जांच और पुनर्मूल्यांकन की अनुमति नहीं होती।
  • न्यायालय की भूमिका पुनर्विचार की नहीं, बल्कि निरीक्षण की होती है।
  • यह निर्णय न्यायिक संकोच (judicial restraint) के सिद्धांत को पुष्ट करता है।

निष्कर्ष
यह निर्णय मध्यस्थता प्रक्रिया की स्वतन्त्रता और न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं के बीच संतुलन बनाता है। इससे भविष्य के मामलों में स्पष्ट मार्गदर्शन मिलेगा कि किस सीमा तक न्यायालय मध्यस्थता निर्णयों में हस्तक्षेप कर सकता है। यह निर्णय न केवल कानून के छात्रों और अधिवक्ताओं के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि उन पक्षों के लिए भी उपयोगी है जो मध्यस्थता प्रक्रिया में शामिल होते हैं। न्यायालय की यह व्याख्या भारत में मध्यस्थता के विकास और उसके प्रभावी कार्यान्वयन को और सुदृढ़ करती है।