शीर्षक: अपराध की रिपोर्टिंग में डर और सामाजिक शर्म: न्याय की राह में सबसे बड़ी बाधा
भूमिका:
अपराध की रिपोर्टिंग, विशेषकर महिलाओं, बच्चों और वंचित वर्गों से संबंधित अपराधों की, आज भी भारत में एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। यद्यपि हमारे पास मजबूत कानूनी ढांचा और संवैधानिक सुरक्षा उपलब्ध हैं, लेकिन जब तक पीड़ित स्वयं आगे आकर न्याय के लिए आवाज़ नहीं उठाते, तब तक कानून की शक्ति सीमित रह जाती है। दुर्भाग्यवश, अपराधों की रिपोर्टिंग में सबसे बड़ी बाधा बनता है डर और सामाजिक शर्म।
डर और सामाजिक शर्म की प्रकृति:
पीड़ितों में अपराध की रिपोर्ट करने को लेकर कई प्रकार के भय होते हैं — परिवार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचने का डर, पुलिस और न्यायिक प्रक्रिया की जटिलताओं से डर, समाज के तानों और कलंक का डर, और कभी-कभी आरोपी के प्रभाव और प्रतिशोध का भय। यह डर कई बार पीड़ित को इतना जकड़ लेता है कि वह न्याय की उम्मीद छोड़ देता है। विशेषकर यौन हिंसा, घरेलू हिंसा, मानसिक उत्पीड़न या बाल यौन शोषण जैसे अपराधों में तो यह डर और शर्म और अधिक प्रभावी हो जाते हैं।
सांस्कृतिक और सामाजिक पहलू:
भारतीय समाज में “इज्जत” को एक अत्यधिक मूल्यवान सामाजिक अवधारणा माना जाता है। कई बार पीड़िता को ही अपराध का दोषी मान लिया जाता है। ऐसे में पीड़िता को अपराध की रिपोर्ट करना सामाजिक बहिष्कार का कारण बन सकता है। कई परिवार अपनी बेटियों के साथ घटी हिंसा की घटनाओं को “घर की बात” समझकर दबा देते हैं, ताकि उनकी शादी या सामाजिक छवि पर आंच न आए।
कानूनी और संस्थागत चुनौतियाँ:
पुलिस थानों में अक्सर पीड़ितों को संवेदनशीलता से नहीं सुना जाता। रिपोर्ट लिखवाने में टालमटोल या उत्पीड़न की घटनाएं भी सामने आती हैं। विशेष रूप से ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में तो रिपोर्ट दर्ज कराना एक पहाड़ जैसा कार्य बन जाता है। इसके अलावा, लंबे समय तक चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया, जमानत पर छूटकर आए आरोपियों द्वारा धमकी, गवाहों पर दबाव आदि भी अपराध की रिपोर्टिंग में बाधाएं पैदा करते हैं।
महिलाओं और बच्चों पर विशेष प्रभाव:
महिलाओं और बच्चों के मामले में सामाजिक शर्म की भावना अत्यंत तीव्र होती है। POCSO अधिनियम, घरेलू हिंसा अधिनियम, महिला आयोग जैसे उपायों के बावजूद, अनेक मामलों में शिकायत दर्ज ही नहीं होती। बच्चों के मामले में माता-पिता ही कभी-कभी रिपोर्ट करने से कतराते हैं, जिससे बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास बाधित होता है।
प्रशासन और समाज की भूमिका:
सरकार द्वारा फास्ट ट्रैक कोर्ट, वन स्टॉप सेंटर, साइबर हेल्पलाइन, महिला हेल्प डेस्क, नालसा (NALSA) जैसी योजनाएं शुरू की गई हैं, लेकिन इनका प्रभाव तभी व्यापक होगा जब समाज भी मानसिकता बदले। स्कूलों, कॉलेजों, और पंचायत स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना, पुलिस और न्यायिक अधिकारियों को संवेदनशीलता प्रशिक्षण देना, और मीडिया की सकारात्मक भूमिका अपराध की रिपोर्टिंग को बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं।
न्याय की राह में बदलाव की आवश्यकता:
आज जरूरत इस बात की है कि हम पीड़ित को दोषी की तरह न देखें। अपराध की रिपोर्ट करने वालों को साहसी समझा जाए न कि कलंकित। समाज को चाहिए कि वह पीड़ित के साथ खड़ा हो, न कि उसे चुप रहने पर मजबूर करे। जब हर पीड़ित निर्भय होकर न्याय के लिए आगे आएगा, तभी अपराधियों को उनके कर्मों की सजा मिलेगी और समाज में एक स्वस्थ, न्यायपूर्ण वातावरण बनेगा।
निष्कर्ष:
अपराध की रिपोर्टिंग में डर और सामाजिक शर्म एक गहरी और जटिल सामाजिक समस्या है। यह केवल एक कानूनी या प्रशासनिक मसला नहीं, बल्कि यह सामाजिक मानसिकता का प्रश्न है। जब तक समाज पीड़ितों को समर्थन और सम्मान नहीं देगा, तब तक हम एक न्यायपूर्ण भारत की कल्पना नहीं कर सकते। अपराध की रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित करना, पीड़ितों को सुरक्षा और संवेदनशीलता देना, तथा न्यायिक प्रणाली को पीड़ित-केंद्रित बनाना — यही वह उपाय हैं जिनसे हम इस डर और शर्म की दीवार को तोड़ सकते हैं।