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“अपंजीकृत विक्रय अनुबंध भी हो सकता है साक्ष्य में ग्राह्य, यदि उद्देश्य केवल अनुबंध के अस्तित्व को सिद्ध करना हो” – सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय

अपंजीकृत विक्रय अनुबंध भी हो सकता है साक्ष्य में ग्राह्य, यदि उद्देश्य केवल अनुबंध के अस्तित्व को सिद्ध करना हो” – सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय


प्रस्तावना:
भारतीय न्यायपालिका ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया है कि विधि केवल औपचारिकताओं पर नहीं, बल्कि न्याय के वास्तविक उद्देश्य पर आधारित होती है। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह घोषित किया कि अपंजीकृत विक्रय अनुबंध (Unregistered Agreement to Sell) को भी साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है — यदि इसे केवल अनुबंध के अस्तित्व को सिद्ध करने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया हो, न कि स्वामित्व के हस्तांतरण के लिए। यह निर्णय संपत्ति संबंधी विवादों, विशेष रूप से विशिष्ट निष्पादन (Specific Performance) से जुड़े मामलों में, न्यायिक दृष्टिकोण को गहराई से प्रभावित करेगा।

मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case):

वादकर्ता (Plaintiff) ने न्यायालय में एक वाद दायर किया था जिसमें उसने प्रतिवादी (Defendant) के साथ किए गए विक्रय अनुबंध (Agreement to Sell) का विशिष्ट निष्पादन (Specific Performance) माँगा था।
वादकर्ता ने एक अपंजीकृत अनुबंध पत्र प्रस्तुत किया, जिसे निचली अदालतों ने साक्ष्य में अस्वीकार कर दिया था। अदालतों का मत था कि यह दस्तावेज़ पंजीकृत नहीं है, अतः भारतीय पंजीकरण अधिनियम, 1908 (Registration Act, 1908) की धारा 49 के तहत यह अमान्य है और साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

वादकर्ता ने इस आदेश के विरुद्ध अपील की, जो अंततः सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँची।


मुख्य प्रश्न (Core Legal Issue):

क्या एक अपंजीकृत विक्रय अनुबंध को विशिष्ट निष्पादन के वाद (Suit for Specific Performance) में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, जब उसका उद्देश्य स्वामित्व का हस्तांतरण सिद्ध करना नहीं बल्कि अनुबंध के अस्तित्व को सिद्ध करना हो?

संबंधित प्रावधान (Relevant Legal Provision):

धारा 49, भारतीय पंजीकरण अधिनियम, 1908 (Section 49, Registration Act, 1908)
यह धारा यह निर्धारित करती है कि कोई भी अपंजीकृत दस्तावेज़, जो पंजीकरण योग्य है, उसे साक्ष्य में नहीं लिया जा सकता — सिवाय इसके कि वह दस्तावेज़ किसी अनुबंध के अस्तित्व या सहवर्ती लेन-देन को सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया हो।

धारा 49 का उपबंध (Proviso):

“कोई अपंजीकृत दस्तावेज, जो पंजीकरण योग्य है, उसे इस उद्देश्य से साक्ष्य में लिया जा सकता है कि उससे कोई अनुबंध, मौखिक समझौता या सहवर्ती लेन-देन सिद्ध हो।”


सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (Supreme Court’s Ruling):

सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि —

“एक अपंजीकृत विक्रय अनुबंध को विशिष्ट निष्पादन के वाद में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, यदि उसे केवल अनुबंध के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया हो। जब तक दस्तावेज़ का उद्देश्य स्वामित्व के हस्तांतरण को सिद्ध करना नहीं है, यह धारा 49 के उपबंध के अंतर्गत वैध रूप से ग्राह्य है।”


न्यायालय का तर्क (Court’s Reasoning):

  1. साक्ष्य की सीमित स्वीकृति (Limited Admissibility):
    न्यायालय ने कहा कि ऐसा अपंजीकृत दस्तावेज केवल इस सीमा तक स्वीकार किया जा सकता है कि वह अनुबंध के अस्तित्व या लेन-देन की मंशा को प्रदर्शित करे। इसे स्वामित्व हस्तांतरण या शीर्षक स्थापित करने के प्रमाण के रूप में नहीं लिया जा सकता।
  2. राज्य संशोधनों का प्रभाव (Effect of State Amendments):
    न्यायालय ने यह भी माना कि कुछ राज्यों (जैसे तमिलनाडु) में स्थानीय संशोधनों द्वारा विक्रय अनुबंध का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया है। परंतु, ऐसे राज्य संशोधन भी धारा 49 के उपबंध की वैधानिक शक्ति को समाप्त नहीं कर सकते। इसलिए, साक्ष्य के रूप में दस्तावेज़ की स्वीकार्यता बनी रहती है।
  3. पूर्व निर्णय पर निर्भरता (Reliance on Precedent):
    न्यायालय ने अपने निर्णय में S. Kaladevi v. V.R. Somasundara & Ors., (2010) 5 SCC 401 का उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया था कि अपंजीकृत दस्तावेज़ को विशिष्ट निष्पादन के वाद में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
  4. निचली अदालतों की त्रुटि (Error of Lower Courts):
    सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि निचली अदालतों ने इस कानूनी सिद्धांत को नजरअंदाज किया और केवल इस आधार पर दस्तावेज़ को अस्वीकार कर दिया कि वह पंजीकृत नहीं है। यह दृष्टिकोण गलत था।

न्यायालय द्वारा पुनः स्थापित सिद्धांत (Reaffirmed Legal Principle):

  • जब कोई अपंजीकृत विक्रय अनुबंध स्वामित्व का हस्तांतरण सिद्ध करने के लिए नहीं बल्कि केवल अनुबंध के अस्तित्व को दर्शाने के लिए प्रस्तुत किया जाता है,
    तो वह धारा 49 के उपबंध के अंतर्गत साक्ष्य में स्वीकार्य (admissible in evidence) है।

व्यावहारिक प्रभाव (Practical Implications):

  1. वादकारियों के लिए राहत:
    अब वादी, जिनके पास केवल अपंजीकृत विक्रय अनुबंध है, भी विशिष्ट निष्पादन की मांग कर सकते हैं — बशर्ते वे यह सिद्ध कर दें कि अनुबंध वास्तव में हुआ था।
  2. न्यायिक दृष्टिकोण की स्पष्टता:
    यह निर्णय न्यायपालिका को यह स्पष्ट करता है कि पंजीकरण की अनिवार्यता का तात्पर्य यह नहीं कि अपंजीकृत अनुबंध सर्वथा अमान्य है।
  3. संपत्ति विवादों में मार्गदर्शन:
    यह निर्णय उन मामलों में निर्णायक होगा जहाँ अनुबंध मौखिक या अपंजीकृत रूप में किया गया था, किंतु पक्षकारों ने उस पर आचरण किया हो।

महत्वपूर्ण उद्धरण (Key Extract from the Judgment):

“Where an unregistered document is not tendered as evidence of transfer of ownership but only to show that a contract to sell existed between the parties, it falls squarely within the exception under the proviso to Section 49, thereby making it admissible in evidence for proving the existence of such contract.”


निष्कर्ष (Conclusion):

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय संपत्ति कानून और संविदा कानून (Contract Law) दोनों के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि न्याय केवल तकनीकी औपचारिकताओं का शिकार न हो, बल्कि वास्तविक लेन-देन और पक्षकारों की मंशा के अनुरूप हो।

अब यह सिद्धांत दृढ़ हो गया है कि—

“यदि कोई अपंजीकृत विक्रय अनुबंध स्वामित्व का प्रमाण नहीं बल्कि अनुबंध के अस्तित्व का प्रमाण देने के लिए प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे साक्ष्य में स्वीकार किया जा सकता है।”

इस निर्णय ने न केवल न्यायिक स्पष्टता प्रदान की है बल्कि उन वादकारियों के लिए न्याय का द्वार खोला है जो तकनीकी कारणों से अपने वैध दावे सिद्ध नहीं कर पा रहे थे।