“अन्वेषण के आदेश के पश्चात प्राथमिकी को रद्द करने की सीमा: Arun P. Gidh बनाम चंद्रप्रकाश सिंह व अन्य (सुप्रीम कोर्ट – 2025)”

शीर्षक:
“अन्वेषण के आदेश के पश्चात प्राथमिकी को रद्द करने की सीमा: Arun P. Gidh बनाम चंद्रप्रकाश सिंह व अन्य (सुप्रीम कोर्ट – 2025)”


भूमिका:
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में पुलिस द्वारा संज्ञेय अपराधों की विवेचना (Investigation) प्रारंभ करने की प्रक्रिया दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के अंतर्गत सशक्त रूप से संरक्षित है। जब किसी मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 156(3) के तहत पुलिस को जांच का आदेश दिया जाता है, तो उसके बाद दर्ज की गई FIR एक वैधानिक प्रक्रिया का अंग बन जाती है। ऐसे मामलों में High Court की पुनरीक्षण (Revisional) न्यायिक शक्ति सीमित होती है।

Arun P. Gidh बनाम चंद्रप्रकाश सिंह व अन्य मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसी मुद्दे पर निर्णय देते हुए यह स्पष्ट किया कि एक बार मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 156(3) CrPC के तहत जांच का आदेश दे दिया गया हो, तो उसके आधार पर दर्ज की गई प्राथमिकी (FIR) को पुनरीक्षण अधिकार (revisional jurisdiction) के तहत रद्द नहीं किया जा सकता।


मामले की पृष्ठभूमि:
इस मामले में अर्जुन पी. गिध के खिलाफ चंद्रप्रकाश सिंह द्वारा आपराधिक आरोप लगाए गए थे। शिकायतकर्ता ने मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 156(3) CrPC के तहत एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि आरोपी ने एक संज्ञेय अपराध किया है और पुलिस जांच आवश्यक है।

मजिस्ट्रेट ने याचिका स्वीकार करते हुए पुलिस को जांच का आदेश दे दिया। इसके आधार पर पुलिस ने FIR दर्ज की।

बाद में आरोपी Arun P. Gidh ने इस FIR को रद्द करवाने हेतु पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) दायर की, जिसे बॉम्बे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया।


न्यायालय का अवलोकन:
बॉम्बे हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:

  1. धारा 156(3) CrPC का स्वरूप:
    यह धारा मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि यदि किसी संज्ञेय अपराध की सूचना दी जाए, और पुलिस ने कार्रवाई नहीं की हो, तो वह पुलिस को अन्वेषण (investigation) का निर्देश दे सकता है।
  2. FIR का स्वतः परिणाम:
    एक बार जब मजिस्ट्रेट धारा 156(3) के अंतर्गत आदेश दे देता है, तो पुलिस के पास FIR दर्ज करना कानूनी दायित्व बन जाता है। यह FIR फिर मजिस्ट्रेट के आदेश का सीधा परिणाम है।
  3. Revisional Jurisdiction की सीमा:
    पुनरीक्षण अधिकार का उद्देश्य न्यायिक आदेश की समीक्षा करना है, न कि कार्यपालिका (पुलिस) के कृत्यों को निष्प्रभावी बनाना। जब FIR मजिस्ट्रेट के आदेश के अनुपालन में दर्ज की गई है, तब उच्च न्यायालय उसे अपने पुनरीक्षण अधिकार में रद्द नहीं कर सकता।

महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत:

  • CrPC की धारा 397 और 401 के तहत पुनरीक्षण याचिका उसी स्थिति में स्वीकार की जा सकती है जब मजिस्ट्रेट के आदेश में कोई jurisdictional error, कानून का स्पष्ट उल्लंघन, या न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हो।
  • मजिस्ट्रेट का आदेश यदि विधिवत प्रक्रिया में और आरोपों की गंभीरता को देखते हुए पारित किया गया है, तो FIR को निरस्त करने का कोई आधार नहीं बनता।

सुप्रीम कोर्ट की पुष्टि:
सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के निर्णय को सही ठहराते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि जब मजिस्ट्रेट ने प्रारंभिक स्तर पर जांच के आदेश दिए हों और FIR उसी के परिणामस्वरूप दर्ज हो, तो यह न्यायालय की स्वायत्तता और पुलिस के कर्तव्यों के बीच संतुलन का विषय बन जाता है। पुनरीक्षण याचिका इस अधिकार को बाधित नहीं कर सकती।


न्यायिक महत्व:
इस निर्णय के व्यापक प्रभाव हैं:

  1. मजिस्ट्रेट की प्रक्रिया की रक्षा: यह निर्णय मजिस्ट्रेट की प्रक्रियात्मक शक्तियों को सुरक्षित करता है और पुलिस को उसके कर्तव्यों के निर्वहन में बाधा डालने से रोकता है।
  2. पुनरीक्षण की सीमाओं को स्पष्ट करना: यह स्पष्ट करता है कि पुनरीक्षण का अधिकार अपील जैसा व्यापक नहीं है और इसका प्रयोग सीमित परिस्थितियों में ही किया जा सकता है।
  3. प्राथमिकी की वैधानिकता का समर्थन: FIR जो न्यायिक आदेश पर आधारित हो, उसे न्यायिक समीक्षा से मुक्त रखना आवश्यक है, अन्यथा मजिस्ट्रेट के आदेश की वैधता ही समाप्त हो जाएगी।

निष्कर्ष:
Arun P. Gidh बनाम चंद्रप्रकाश सिंह व अन्य का निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था में FIR, मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ, और पुनरीक्षण अधिकारों की सीमाओं को स्पष्ट करता है। यह न्यायालयों को यह स्मरण कराता है कि प्रत्येक कानूनी मंच की भूमिका और अधिकार क्षेत्र स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं, और उनका अतिक्रमण न्यायिक अनुशासन का उल्लंघन है।

यह निर्णय एक महत्वपूर्ण न्यायिक मिसाल है, विशेष रूप से उन मामलों में जहाँ आरोपी पक्ष मामूली तकनीकी आधारों पर FIR को निरस्त करने का प्रयास करते हैं।