शीर्षक: अनुसूचित जाति अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत अग्रिम जमानत की मनाही केवल तभी जब अपराध स्पष्ट रूप से जाति आधारित हो: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का निर्णय
भूमिका:
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अंतर्गत धारा 18 में यह प्रावधान है कि यदि किसी व्यक्ति पर इस अधिनियम के अंतर्गत गंभीर अपराधों का आरोप है, तो उसे अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती। हालांकि, इस प्रावधान की व्याख्या करते हुए हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि अग्रिम जमानत को नकारने के लिए यह आवश्यक है कि प्राथमिकी (FIR) में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित हो कि अपराध पीड़िता की अनुसूचित जाति से संबद्धता के कारण किया गया है।
प्रकरण का विवरण – Sahil Sharma Versus State of HP & Anr:
इस मामले में, याचिकाकर्ता साहिल शर्मा के विरुद्ध बलात्कार का आरोप लगाया गया था। पीड़िता अनुसूचित जाति समुदाय से संबंधित थी। पीड़िता द्वारा दर्ज प्राथमिकी में यह तो बताया गया कि वह अनुसूचित जाति से है, परंतु यह उल्लेख नहीं था कि उसके विरुद्ध अपराध उसकी जाति के कारण किया गया।
अभियोजन पक्ष का तर्क था कि अनुसूचित जाति अधिनियम लागू होता है, और इस कारण धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। वहीं, याचिकाकर्ता की ओर से यह दलील दी गई कि चूंकि एफआईआर में जातीय कारण का कोई उल्लेख नहीं है, इसलिए साधारण आपराधिक कानून के अंतर्गत ही मामला विचारणीय है।
न्यायालय का दृष्टिकोण:
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुसूचित जाति अधिनियम की धारा 18 केवल उन्हीं मामलों पर लागू होती है जहाँ यह प्रत्यक्ष रूप से प्रदर्शित किया गया हो कि अपराध पीड़ित की जाति के कारण किया गया है। यदि एफआईआर में यह तत्व अनुपस्थित है, तो यह माना नहीं जा सकता कि अपराध जाति आधारित था, और ऐसे में आरोपी को अग्रिम जमानत देने से मना नहीं किया जा सकता।
महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ:
- न्यायालय ने यह दोहराया कि अनुसूचित जाति अधिनियम सामाजिक न्याय और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए बनाया गया है, परंतु इसका उपयोग केवल तभी होना चाहिए जब अपराध वाकई जातीय भेदभाव या उत्पीड़न पर आधारित हो।
- अदालत ने यह भी कहा कि यदि जातीय उत्पीड़न के तत्व बाद में जांच में सामने आते हैं, तो अभियोजन उचित धाराओं को जोड़ सकता है। लेकिन शुरुआती स्तर पर, अग्रिम जमानत से केवल इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता कि पीड़िता अनुसूचित जाति से है, जब तक कि यह न दर्शाया गया हो कि अपराध इसी कारण किया गया।
निष्कर्ष:
यह निर्णय उन मामलों के लिए मार्गदर्शक बन सकता है जहाँ अनुसूचित जाति अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिए केवल पीड़िता की जाति को आधार बनाया जाता है, न कि अपराध के प्रकृति और कारण को। इस निर्णय से स्पष्ट होता है कि विधि का उद्देश्य केवल आरोपी को दंडित करना नहीं, बल्कि निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ ढंग से न्याय प्रदान करना है।
न्यायिक संतुलन:
हाईकोर्ट के इस निर्णय में न्यायिक संतुलन का स्पष्ट संकेत मिलता है – एक ओर यह अनुसूचित जाति समुदाय के अधिकारों की रक्षा करता है, वहीं दूसरी ओर आरोपी को कानून के दुरुपयोग से भी सुरक्षा प्रदान करता है।
अंतिम टिप्पणी:
इस निर्णय ने धारा 18 के दायरे को स्पष्ट किया है और यह सुनिश्चित किया है कि अनुसूचित जाति अधिनियम का उद्देश्य सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना है, न कि उसका दुरुपयोग करना। यह विधिक सिद्धांतों की रक्षा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जा सकता है।