लेख शीर्षक:
“अनुचित जांच की स्थिति में उच्च न्यायालय नहीं, मजिस्ट्रेट ही है प्रथम उपाय: इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दिशा-निर्देशक निर्णय”
(Allahabad High Court: Proper Remedy for Improper Investigation Lies Under CrPC Section 156(3), Not Writ Jurisdiction)
भूमिका:
भारत में एफआईआर दर्ज होने के बाद भी यदि जांच सही ढंग से न हो, तो पीड़ित व्यक्ति अक्सर सीधे उच्च न्यायालय की शरण लेता है। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में सीधे हाई कोर्ट में रिट याचिका दाखिल करना अनुचित है। इसके बजाय, संबंधित व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन देना चाहिए।
मामले की पृष्ठभूमि:
इस केस में एक प्राथमिकी (FIR) पहले ही दर्ज हो चुकी थी, लेकिन याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि:
- जांच ठीक से नहीं हो रही है
- जानबूझकर दोषियों को बचाया जा रहा है
- निष्पक्षता नहीं बरती जा रही
याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय से मांग की कि या तो निष्पक्ष जांच कराई जाए या जांच अधिकारी को बदला जाए।
प्रमुख धाराएँ:
- CrPC § 156(3): मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देता है कि वे पुलिस को जांच के आदेश दें या उचित जांच सुनिश्चित करें।
- IPC §§ 420, 467, 468, 471: धोखाधड़ी, जालसाजी, जाली दस्तावेजों का प्रयोग आदि से संबंधित गंभीर अपराध।
उच्च न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ:
- प्रत्यक्ष रूप से हाई कोर्ट नहीं जाएं:
अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में सीधे अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दाखिल करना उचित नहीं है, जब कि CrPC § 156(3) के अंतर्गत प्रभावी वैकल्पिक उपाय उपलब्ध है। - मजिस्ट्रेट का अधिकार:
यदि मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत सामग्री से संतोष होता है, तो वे:- उचित जांच का आदेश दे सकते हैं
- पुलिस अधीक्षक (SP/SSP) को जांच अधिकारी बदलने की सिफारिश कर सकते हैं
- जांच की निगरानी (Monitoring) कर सकते हैं
लेकिन वे स्वयं जांच नहीं कर सकते।
- उच्च न्यायालयों पर बोझ:
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का हवाला देते हुए कहा गया कि उच्च न्यायालय पहले से ही मामलों के बोझ से दबे हैं। ऐसे मामलों को नीचे की अदालतों में ही निपटाना व्यावहारिक और उचित है।
न्यायिक महत्व:
- यह निर्णय “जांच की निष्पक्षता” सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक अनुशासन की पुनः स्थापना करता है।
- प्राथमिक उपाय (first remedy) मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन देना है, न कि उच्च न्यायालय की रिट याचिका।
- यह उच्च न्यायालयों को अनावश्यक हस्तक्षेप से बचाता है और प्रक्रियात्मक संतुलन बनाए रखता है।
निष्कर्ष:
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में एक महत्वपूर्ण नज़ीर (precedent) के रूप में सामने आता है। यह स्पष्ट करता है कि किसी भी प्रकार की अनुचित जांच, पक्षपात या लापरवाही के मामलों में व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 156(3) CrPC के अंतर्गत आवेदन देना चाहिए, और केवल असाधारण परिस्थितियों में ही उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना चाहिए।