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अनियमित नियुक्ति अवैध नहीं: 25 वर्षों की सेवा के बाद बर्खास्त कर्मचारी को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने बहाल किया
🔰 प्रस्तावना:
भारत के सरकारी और अर्ध-सरकारी संस्थानों में नियुक्तियों को लेकर लंबे समय से न्यायिक विचार चल रहा है कि क्या अनियमित रूप से नियुक्त कर्मचारी को बिना जांच के सेवा से हटाया जा सकता है? इसी संदर्भ में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें 25 वर्षों से अधिक सेवा कर चुके एक विश्वविद्यालय कर्मचारी की बर्खास्तगी को गैरकानूनी बताते हुए बहाल करने का आदेश दिया।
यह फैसला न केवल कर्मचारियों के नौकरी सुरक्षा अधिकार की पुष्टि करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि अनियमितता और अवैधता में कानूनी अंतर है।
1. मामला संक्षेप में
- एक व्यक्ति की नियुक्ति विश्वविद्यालय में लगभग 25 साल पहले हुई थी।
- बाद में सेवा नियमित/पुष्ट (Confirmed) की गई।
- हाल ही में उसे प्रारंभिक नियुक्ति में अनियमितता का हवाला देते हुए सेवा से समाप्त कर दिया गया।
- कर्मचारी ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर न्याय की गुहार लगाई।
2. उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण अवलोकन
🏛 न्यायालय ने कहा:
“याचिकाकर्ता की नियुक्ति यदि प्रारंभ में अनियमित थी, तो भी उसे अवैध नहीं कहा जा सकता। जब सेवा की पुष्टि हो गई थी और कर्मचारी ने 25 वर्ष तक निर्विवाद सेवा दी, तो उस पर बिना किसी विधिवत जांच के कठोर दंडात्मक कार्रवाई करना कानून सम्मत नहीं है।”
🔎 प्रमुख टिप्पणियाँ:
- अनियमित नियुक्ति ≠ अवैध नियुक्ति
अनियमित नियुक्ति का अर्थ होता है कि कुछ औपचारिकताएँ या प्रक्रियाएँ अधूरी हो सकती हैं, लेकिन यह नियुक्ति पूरी तरह अवैध या फर्जी नहीं होती। - सेवा की पुष्टि (Confirmation) का प्रभाव:
जब एक कर्मचारी को सेवाकाल के दौरान नियमित कर दिया जाता है, तो वह स्थायी कर्मचारी माना जाता है। उसकी सेवा समाप्ति केवल विधिसम्मत अनुशासनात्मक प्रक्रिया से ही की जा सकती है। - न्यायसंगत प्रक्रिया आवश्यक:
बिना कोई आरोप पत्र, बिना जांच समिति, और बिना सुनवाई का अवसर दिए बर्खास्तगी करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
3. संवैधानिक और विधिक दृष्टिकोण
✅ अनुच्छेद 311 (2), भारतीय संविधान:
- किसी सरकारी कर्मचारी को बिना जांच और सुनवाई के सेवा से हटाया नहीं जा सकता है।
✅ प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत:
- “Audi alteram partem” — “दूसरी पार्टी को सुना जाना चाहिए”
सेवा समाप्ति से पहले कर्मचारी को अपना पक्ष रखने का अवसर देना अनिवार्य है।
✅ सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णय:
- State of Karnataka vs Uma Devi (2006):
सुप्रीम कोर्ट ने अवैध नियुक्तियों के विरुद्ध सख्त रुख अपनाया, लेकिन यह भी स्पष्ट किया कि लंबे समय से सेवा में बने कर्मचारियों को सहानुभूति से देखा जा सकता है। - Rattan Lal vs State of Haryana (1985):
यदि कोई कर्मचारी वर्षों से सेवा में है, तो बिना प्रक्रिया के निष्कासन अन्यायपूर्ण है।
4. व्यावहारिक महत्व और प्रभाव
- कर्मचारी हितों की सुरक्षा:
यह फैसला ऐसे हजारों कर्मचारियों के लिए राहत का स्रोत है जो वर्षों की सेवा के बाद नियुक्ति की प्रारंभिक प्रक्रियाओं के कारण निशाने पर होते हैं। - प्रशासनिक जवाबदेही:
नियुक्तियों में गलती करने वाले प्राधिकरणों को भी जवाबदेह बनाया जाना चाहिए, न कि केवल कर्मचारी को दंडित किया जाए। - न्यायपालिका की मानवीय दृष्टिकोण:
अदालत ने तकनीकी खामियों के बावजूद 25 वर्षों की सेवा को मान्यता दी और सामाजिक-आर्थिक न्याय को प्राथमिकता दी।
5. निष्कर्ष
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का यह निर्णय न केवल एक कर्मचारी को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा देता है, बल्कि भारतीय न्याय व्यवस्था के न्यायप्रिय और मानवीय चेहरे को भी उजागर करता है।
यह स्पष्ट करता है कि किसी कर्मचारी की सेवा समाप्त करने से पहले कानूनी प्रक्रिया और नैतिक दायित्वों का पूर्ण रूप से पालन किया जाना चाहिए। अनियमितता कोई अपराध नहीं, और न्याय प्रक्रिया बिना जांच के अधूरी है।