“अनलाइसेंस्ड और अवैध ऋण पर जारी चेक पर नहीं चलेगा 138 N.I. Act: सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को बरी किया”

“अनलाइसेंस्ड और अवैध ऋण पर जारी चेक पर नहीं चलेगा 138 N.I. Act: सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को बरी किया”

परिचय:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 6 मई 2025 को एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए कहा कि यदि किसी चेक का निर्गमन एक अवैध और बिना लाइसेंस वाली ऋण गतिविधि के संदर्भ में हुआ हो, तो उस चेक को धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के तहत आपराधिक अभियोजन का आधार नहीं बनाया जा सकता। इस निर्णय में अदालत ने आरोपी को बरी करते हुए साफ किया कि जब मूल लेन-देन ही गैरकानूनी है, तो उस पर आधारित चेक के अनादान (dishonour) को अपराध नहीं माना जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि:
इस प्रकरण में शिकायतकर्ता ने एक व्यक्ति को ऋण दिया था, और उस ऋण के एवज में एक चेक प्राप्त किया। चेक बाउंस होने के पश्चात शिकायतकर्ता ने धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक कार्यवाही प्रारंभ की। हालांकि, यह स्पष्ट हुआ कि ऋण देने वाली पार्टी ने कोई वैध मनी लेंडिंग लाइसेंस नहीं ले रखा था और वह व्यवसायिक रूप से ब्याज पर पैसे उधार दे रही थी, जो संबंधित राज्य के कानूनों के अनुसार गैरकानूनी था।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण:
पीठ ने यह निर्णय देते समय निम्नलिखित बिंदुओं पर ज़ोर दिया:

  1. गैरकानूनी अनुबंध पर आधारित चेक:
    न्यायालय ने कहा कि जब मूल ऋण अनुबंध ही कानून के विरुद्ध है — जैसे कि बिना लाइसेंस के पैसे उधार देना — तो उसके आधार पर दी गई चेक का कानूनी बल नहीं रह जाता। इसे धारा 138 के तहत अभियोजन का आधार नहीं बनाया जा सकता।
  2. न्यायिक सिद्धांत:
    अदालत ने भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 23 का उल्लेख करते हुए कहा कि अवैध उद्देश्य के लिए किया गया कोई अनुबंध शून्य होता है। अतः उस अनुबंध से उत्पन्न किसी दायित्व की पूर्ति के लिए जारी किया गया चेक भी मान्य नहीं होता।
  3. दंडात्मक प्रावधानों की संकीर्ण व्याख्या:
    चूंकि धारा 138 दंडात्मक प्रावधान है, इसे strictly construed किया जाना चाहिए। जब तक शिकायतकर्ता यह सिद्ध न करे कि लेन-देन वैध था, अभियोजन सफल नहीं हो सकता।

निर्णय का प्रभाव:
इस फैसले का दूरगामी असर होगा, विशेषकर उन मामलों में जहाँ बिना लाइसेंस के ऋण देने वाले लोग बाउंस चेक के आधार पर आपराधिक मुकदमे चला रहे हैं। अब यह स्पष्ट हो गया है कि जब मूल ऋण व्यवस्था ही अवैध है, तो उसकी वसूली के लिए आपराधिक कानून का सहारा नहीं लिया जा सकता।

निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्याय और नीति के संतुलन का उत्तम उदाहरण है। यह न केवल लोगों को अनियमित और अवैध वित्तीय गतिविधियों से सतर्क करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि आपराधिक कानून का उपयोग केवल वैध और नैतिक आधारों पर ही किया जाए।