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अधूरी शादी और न्यायालय का रुख

अधूरी शादी और न्यायालय का रुख: दंपत्ति विवादों पर नवीनतम निर्णय

परिचय — ‘अधूरी शादी’ किसे कहें?
विवाह केवल एक परंपरा या रस्म-रिवाज़ नहीं; यह सामाजिक और कानूनी संबंध भी है। जब विवाह में आवश्यक घटक — जैसे वैध आशय, सहमति, रस्म (जैसे साप्‌तपदी/सप्तपदी परंपरा — जहाँ व्यवहारिक रूप से विवाह सम्पन्न माना जाता है) — पूरा न हों, तब उसे जनरली “अधूरी”, “अमान्य” या “नलिटी/नलिज” (nullity/annulment) कहा जा सकता है। भारतीय न्यायशास्त्र में यह फर्क संवैधानिक और पारिवारिक क़ानून के दिलचस्प मुद्दों में शुमार है: क्या विवाह कभी अस्तित्व में आया ही नहीं (void), या आया पर धोखे/अकारणता के कारण रद्द किया जा सकता है (voidable), और क्या रद्द होने पर पक्षों के हक-कर्तव्य बरकरार रहते हैं? हालिया सुप्रीम कोर्ट व उच्च न्यायालयों के निर्णय इन प्रश्नों पर स्पष्टता दे रहे हैं — और यही इस लेख का विषय है।


कानूनी ढाँचा (संक्षेप में)

  1. Section 11, Hindu Marriage Act (HMA), 1955 — कुछ विवाह कानूनी रूप से void यानी शून्य से भी शून्य (never valid) माने जा सकते हैं, जैसे निषिद्ध संबंधों में किये गए विवाह या कानूनी अनिवार्यता का अभाव।
  2. Section 12, HMA — यह उन मामलों को कवर करता है जहाँ विवाह voidable होता है; यानी विवाह को रद्द (annul) किया जा सकता है यदि सहमति धोखे, नशे, कमी या मानसिक अयोग्यता के कारण मिली हो।
  3. Section 25, HMA — किसी भी तरह के विवाहित संबंध पर दिए गए decree (divorce/annulment/nullity) के बाद, परिवारिक अदालत को स्थायी भरण-पोषण (permanent alimony) देने का विवेक रहता है।
  4. साथ ही, Protection of Women from Domestic Violence Act (DV Act) जैसी अन्य व्यवस्थाएँ भी अलग ढंग से संरक्षण व निवास/मुआवज़े/रखरखाव के अधिकार देती हैं, जो सिर्फ़ ‘वैवाहिक स्थिति’ पर निर्भर नहीं रहतीं।

इन धाराओं के व्याख्यान पर अदालतों ने हाल में अहम प्रवृत्तियाँ रेखांकित की हैं — विशेषकर यह कि void घोषित विवाह के बाद भी कुछ सुरक्षा उपाय उपलब्ध रह सकते हैं।


ताज़ा न्यायालयी रुख — प्रमुख निर्णय और उनकी विवेचना

1) सुप्रीम कोर्ट: Void marriage होने पर भी स्थायी भरण-पोषण का अधिकार

फ़रवरी 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि कोई विवाह Section 11 के तहत void घोषित कर दिया गया है, तो भी वह पक्ष (पति/पत्नी) Section 25 के तहत स्थायी भरण-पोषण माँग सकता/सकती है। अदालत का तर्क यह है कि Section 25 का उद्देश्य पारिवारिक अदालत को किसी भी decree के बाद विवेकपूर्ण सहायता देने का अधिकार देना है — ताकि कमजोर पक्ष अनावश्यक आर्थिक संकट में न आये। इस निर्णय ने पारंपरिक धारणा को चुनौती दी कि ‘नलिटी का मतलब हमेशा हर प्रकार के अधिकारों का पूर्ण समापन’ होगा।

2) बॉम्बे हाई कोर्ट — बीमारी छिपाने पर विवाह रद्द

हाल ही में बॉम्बे (और उसके बेंच) ने एक मामले में फैसला दिया कि यदि विवाह के समय किसी गंभीर, अनचिकित्स्य (incurable) बीमारी को छिपाया गया हो, और वह तथ्य वैवाहिक जीवन पर प्रभाव डालता है, तो वह वस्तुनिष्ठ फ़्रॉड माना जा सकता है और विवाह annul किया जा सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि रोग का प्रकटीकरण एक ‘सामग्री तथ्य’ होता है — यदि उसे छिपाया गया और उससे सहमति प्रभावित हुई, तो नलिटी/annulment का आधार बनता है। इस निर्णय से यह साफ हुआ कि स्वास्थ्य-संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी का खुलासा न करना कानूनी परिणाम ला सकता है।

3) बॉम्बे हाई कोर्ट — DV Act के तहत सुरक्षा बनी रहती है भले विवाह नलिटी हो

एक और बॉम्बे हाई कोर्ट के फैंसले में अदालत ने कहा कि विवाह को नलिटी घोषित कर दिया जाना उस महिला को DV Act के सुरक्षा अधिकारों से वंचित नहीं करता। यदि घरेलू हिंसा/मानसिक उत्पीड़न का ठोस सबूत है तो पीड़ित महिलाएँ संरक्षण, रेंट और मुआवज़ा माँग सकती हैं — भले कानूनी तौर पर विवाह ‘अमान्य’ घोषित हो। इस निर्णय का व्यावहारिक असर यह है कि ‘कानूनी स्टेटस’ और ‘व्यवहारिक सुरक्षाएँ’ अलग-अलग धुरी पर चल सकती हैं।

4) केरल हाई कोर्ट — दूसरी शादी के दिन विवादित परिस्थितियाँ

एक हालिया केरल हाई कोर्ट के निर्णय में यह मामला आया कि यदि किसी व्यक्ति ने पहले विवाह से तलाक लेकर उसी दिन दूसरी शादी कर ली, तो क्या दूसरी शादी स्वतः अमान्य होगी? अदालत ने कहा कि केवल समय-सीमा (same-day divorce and remarriage) पर आधारित स्वचालित निष्कर्ष उचित नहीं है; यदि पहला तलाक वैध था और उस पर चुनौती नहीं उठाई गई, तो दूसरी शादी स्वतः अमान्य नहीं मानी जायेगी। यह निर्णय वैवाहिक वैधता के व्यावहारिक विवेचन पर न्यायिक संयम दर्शाता है।


कानून बनाम व्यवहार — क्या ‘अधूरी’ शादी का मतलब हमेशा रक्षा कमज़ोर होना है?

न्यायालयी प्रवृत्तियाँ दर्शाती हैं कि केवल ‘अधूरी’ या ‘नलिटी’ शब्दों के उपयोग से तत्काल रूप से सभी आर्थिक/सामाजिक अधिकार नष्ट नहीं होते। अदालतें बारीकी से तथ्यों, धोखे की प्रकृति, पार्टियों के व्यवहार, और सामाजिक-आर्थिक प्रभावों को देखती हैं। उदाहरणत: यदि किसी पक्ष ने विधिक तौर पर अनुपस्थिति में अनुचित तरीके से annulment हासिल कर लिया, पर दूसरे पक्ष ने घरेलू हिंसा के आधार पर मानवीय सुरक्षा माँगी है — तो DV Act के तहत राहत दी जा सकती है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के हालिया रुख ने void विवाह के बाद भी Section 25 के तहत भरण-पोषण के द्वार खोल दिए हैं — जो कमजोर पक्ष के लिये राहत का स्रोत है।


अभ्यास में क्या ध्यान रखें — सुझाव (रुचिकर लेकिन व्यावहारिक)

  1. शादी से पहले खुला संवाद और दस्तावेजीकरण: स्वास्थ्य, पिछले विवाह, बाल सम्बन्धी स्थिति या किसी भी वेवहारिक तथ्य का खुला उल्लेख और मेडिकल/विवाह-प्रमाण पत्र रखना बेहतर है।
  2. शादी की रस्म और साक्ष्य: यदि आप पारंपरिक रीति-रिवाज़ (जैसे सप्तपदी) करते हैं, तो फोटो, वीडियो और गवाहों का रिकॉर्ड रखें। सुप्रीम कोर्ट ने रिति-रिवाज़ों की प्रामाणिकता को गंभीरता से देखा है।
  3. किसी भी फौरी समस्या पर DV Act के तहत आवेदन: अगर व्यवहारिक उत्पीड़न है, तो सिर्फ तत्क्षण नलिटी/डिवोर्स की परवाह किये बिना घरेलू हिंसा रिपोर्ट/आश्रय मांगें — अदालतें ऐसा दावे को गंभीरता से लेती हैं।
  4. कानूनी सलाह जल्दी लें: यदि आपको लगता है कि विवाह में धोखा हुआ, या आपकी सहमति प्रभावित हुई, तो विशेषज्ञ पारिवारिक वकील से परामर्श लेकर Section 12 या Section 11 के तहत कार्रवाई की रणनीति बनायें।
  5. आर्थिक सुरक्षा पर ध्यान: नलिटी/annulment के बाद भी आर्थिक दावों (permanent alimony) की संभावना रहती है — इसलिए वित्तीय दस्तावेज़ संभालकर रखें।

निष्कर्ष — मामलों का संतुलन और भविष्य की दिशाएँ

‘अधूरी’ या ‘अमान्य’ विवाह के कानूनी परिणाम सिर्फ़ तकनीकी घोषणा तक सीमित नहीं रहते। हाल के निर्णयों से स्पष्ट है कि भारतीय न्यायव्यवस्था — संवैधानिक, पारिवारिक और सुरक्षा-आधारित कानूनों के बीच संतुलन साधते हुए — न केवल कानूनी वैधता पर निर्भर करती है, बल्कि सामाजिक-न्याय और संरक्षण के पहलुओं को भी प्राथमिकता देती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा void विवाह में स्थायी भरण-पोषण को मान्यता और उच्च न्यायालयों द्वारा स्वास्थ्य/छल/घरेलू हिंसा जैसे तथ्यों को गंभीरता से लेना दर्शाता है कि अदालतें ‘न केवल रूप’ बल्कि ‘प्रभाव’ को भी महत्व दे रही हैं। कोर्ट का यह रुख पारिवारिक विवादों में कमजोर पक्ष—विशेषकर महिलाओं—को राहत का वैधानिक आधार प्रदान करता है, साथ ही विवाह से पहले पारदर्शिता की महत्ता को भी रेखांकित करता है।