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‘अधिवक्ता द्वारा शपथपत्र की सत्यता के लिए जिम्मेदार नहीं

‘अधिवक्ता द्वारा शपथपत्र की सत्यता के लिए जिम्मेदार नहीं’: सुप्रीम कोर्ट ने वकील के खिलाफ ‘दुष्ट’ शिकायत खारिज की

परिचय

भारत में न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता और पारदर्शिता बनाए रखने में अधिवक्ताओं की भूमिका केंद्रीय महत्व रखती है। अधिवक्ता न केवल अपने मुवक्किलों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि न्यायपालिका को सही और समयोचित सूचना प्रदान करने में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इस संदर्भ में, अधिवक्ताओं की जिम्मेदारियों और उनके कार्यों के दायरे को स्पष्ट करना आवश्यक है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में यह स्पष्ट किया कि एक अधिवक्ता जो केवल शपथपत्र (Affidavit) पर हस्ताक्षर करता है, वह उसके विषय की सत्यता के लिए जिम्मेदार नहीं होता। इस निर्णय ने भारतीय विधिक प्रणाली में अधिवक्ताओं की जिम्मेदारियों और अनुशासनात्मक प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान किया है।


मामले का पृष्ठभूमि

यह मामला मुंबई की अधिवक्ता गीता रामानुग्रह शास्त्री से संबंधित है। शिकायतकर्ता बंसीधर अन्नाजी भाकड़ ने आरोप लगाया कि शास्त्री ने एक शपथपत्र पर हस्ताक्षर करके उसके विषय की सत्यता की पुष्टि की, जिससे वह धोखाधड़ी, जालसाजी और शपथभंग के अपराधों में लिप्त हो गई।

शिकायतकर्ता ने यह दावा किया कि शास्त्री की शपथपत्र पर हस्ताक्षर करने की क्रिया केवल औपचारिक नहीं थी, बल्कि इससे वह खुद उस दस्तावेज़ की सच्चाई के लिए जिम्मेदार हो गई। इसके परिणामस्वरूप, बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा (BCMG) को इस मामले में अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए शिकायत प्राप्त हुई और इसे अनुशासनात्मक समिति के समक्ष भेजा गया।


बॉम्बे हाई कोर्ट का आदेश

बॉम्बे हाई कोर्ट ने 9 अगस्त 2023 को इस शिकायत को खारिज कर दिया। हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि शास्त्री ने कभी शपथपत्र पर शपथ नहीं ली और उनका कार्य केवल दस्तावेज़ के हस्ताक्षरकर्ता की पहचान करना था।

कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि शपथपत्र पर हस्ताक्षर करना और उसके विषय की सत्यता की पुष्टि करना दो अलग-अलग क्रियाएँ हैं। अधिवक्ता केवल पहले कार्य के लिए जिम्मेदार होते हैं, न कि दस्तावेज़ में दर्ज तथ्यों की सच्चाई के लिए।

हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि अनुशासनात्मक कार्रवाई में इस अंतर को समझना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि अधिवक्ताओं को केवल औपचारिक या तकनीकी जिम्मेदारी निभाने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए यह स्पष्ट किया कि एक अधिवक्ता जो केवल शपथपत्र पर हस्ताक्षर करता है, वह उसके विषय की सत्यता के लिए जिम्मेदार नहीं होता।

सुप्रीम कोर्ट ने शिकायत को ‘निराधार, अव्यावहारिक और दुष्ट’ करार देते हुए खारिज कर दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि BCMG जैसी संस्थाएँ भी अनुशासनात्मक शिकायतों को पंजीकृत करते समय अत्यधिक सावधानी बरतें, ताकि निर्दोष अधिवक्ताओं को अनुचित परेशानी का सामना न करना पड़े।

सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में कहा कि अधिवक्ता की भूमिका न्यायपालिका और मुवक्किल के बीच एक पुल की तरह है। अधिवक्ता का कार्य केवल कानूनी औपचारिकताओं का पालन करना और दस्तावेज़ की प्रक्रिया सुनिश्चित करना है, न कि हर तथ्य की व्यक्तिगत सत्यता की गारंटी देना।


शिकायतकर्ता और BCMG पर जुर्माना

सुप्रीम कोर्ट ने शिकायतकर्ता बंसीधर अन्नाजी भाकड़ और BCMG पर ₹50,000 का जुर्माना लगाया। कोर्ट ने आदेश दिया कि यह राशि बॉम्बे हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार के पास जमा की जाए और अधिवक्ता शास्त्री को दी जाए।

कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी स्पष्ट किया कि दुष्ट या निराधार शिकायतें न केवल अधिवक्ताओं की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाती हैं, बल्कि न्यायिक प्रणाली पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। इस प्रकार, ऐसी शिकायतों के खिलाफ स्पष्ट दंडात्मक प्रावधान होना आवश्यक है।


अधिवक्ताओं की जिम्मेदारियाँ

यह निर्णय अधिवक्ताओं की भूमिका और जिम्मेदारियों को स्पष्ट करता है। सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर दिया:

  1. औपचारिक जिम्मेदारी:
    अधिवक्ता केवल दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करके उसकी प्रक्रिया को औपचारिक रूप से पूरा करता है।
  2. सत्यापन जिम्मेदारी नहीं:
    दस्तावेज़ में दर्ज तथ्यों की सच्चाई की पुष्टि करना अधिवक्ता की जिम्मेदारी नहीं है।
  3. अनुशासनात्मक सुरक्षा:
    अनुशासनात्मक कार्रवाई के दौरान, अधिवक्ता को केवल उसके कार्य की सीमा के अनुसार जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
  4. न्यायपालिका और वकील के बीच संतुलन:
    यह निर्णय न्यायपालिका और अधिवक्ताओं के बीच संतुलन बनाए रखने में मदद करता है। अधिवक्ता को अति अनुशासनात्मक दबाव या दुष्ट शिकायतों से सुरक्षा मिलती है।

न्यायिक दृष्टिकोण

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि अधिवक्ता का काम केवल साक्ष्य या दस्तावेज़ की कानूनी प्रक्रिया को पूरा करना है, न कि उसमें दर्ज हर तथ्य की जांच करना।

कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि यदि किसी दस्तावेज़ में गलत जानकारी है, तो उसका दुरुपयोग करने वाले व्यक्ति या संस्था जिम्मेदार हैं, न कि केवल दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने वाला अधिवक्ता।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में अधिवक्ताओं की भूमिका को सुरक्षित रखने वाला मील का पत्थर है। यह स्पष्ट करता है कि अनुशासनात्मक कार्रवाई का दायरा केवल अधिवक्ता की वास्तविक जिम्मेदारी तक सीमित होना चाहिए।


महत्व और निहितार्थ

  1. अधिवक्ताओं के अधिकार सुरक्षित:
    यह निर्णय अधिवक्ताओं को अनुचित शिकायतों और दुष्ट आरोपों से बचाता है।
  2. न्यायपालिका में विश्वास बढ़ाना:
    न्यायपालिका और अधिवक्ताओं के बीच विश्वास और सहयोग को मजबूत बनाता है।
  3. अनुशासनात्मक प्रक्रिया में सुधार:
    BCMG जैसी संस्थाओं को अधिक सतर्क और न्यायसंगत तरीके से शिकायतों का मूल्यांकन करने के लिए निर्देशित करता है।
  4. वकीलों के कार्यों का स्पष्ट दायरा:
    यह स्पष्ट करता है कि हस्ताक्षर और सत्यापन अलग-अलग क्रियाएँ हैं।
  5. दुष्ट शिकायतों पर नियंत्रण:
    भविष्य में ऐसे मामलों में अनुचित शिकायतों के खिलाफ सख्त कदम उठाए जा सकते हैं।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अधिवक्ताओं की भूमिका, जिम्मेदारियों और अनुशासनात्मक प्रक्रिया को स्पष्ट करने वाला एक ऐतिहासिक कदम है।

  • अधिवक्ता केवल शपथपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए जिम्मेदार हैं।
  • दस्तावेज़ की सत्यता की पुष्टि करना अधिवक्ता का कार्य नहीं है।
  • अनुशासनात्मक शिकायतें केवल वास्तविक और न्यायसंगत आधार पर पंजीकृत की जानी चाहिए।

इस निर्णय से न केवल अधिवक्ताओं को सुरक्षा मिली है, बल्कि न्यायपालिका और अधिवक्ताओं के बीच संतुलन और विश्वास भी सुनिश्चित हुआ है।