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अडानी ग्रुप के खिलाफ कंटेंट हटाने के आदेश को पत्रकार रवीश कुमार ने हाईकोर्ट में दी चुनौती : प्रेस स्वतंत्रता बनाम कार्यपालिका शक्ति

अडानी ग्रुप के खिलाफ कंटेंट हटाने के आदेश को पत्रकार रवीश कुमार ने हाईकोर्ट में दी चुनौती : प्रेस स्वतंत्रता बनाम कार्यपालिका शक्ति

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आज़ादी को लोकतंत्र की आत्मा माना जाता है। लेकिन समय-समय पर ऐसे घटनाक्रम सामने आते हैं, जो इस स्वतंत्रता को चुनौती देते हैं और प्रेस की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। हाल ही में पत्रकार रवीश कुमार ने केंद्र सरकार के उस आदेश को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी है, जिसमें उन्हें अडानी एंटरप्राइजेज से संबंधित कथित अपमानजनक कंटेंट हटाने का निर्देश दिया गया था। यह मामला सिर्फ एक पत्रकार या एक कंपनी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र, प्रेस की स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्यों की बुनियाद से जुड़ा हुआ है।

मामला क्या है?

केंद्र सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT Act) और उससे जुड़े नियमों के तहत एक आदेश पारित किया था, जिसके अंतर्गत रवीश कुमार से अडानी एंटरप्राइजेज के खिलाफ प्रकाशित/प्रसारित सामग्री को हटाने को कहा गया। सरकार का तर्क था कि यह सामग्री “आपत्तिजनक और मानहानिकारक” है तथा इससे कंपनी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचता है।

रवीश कुमार ने इस आदेश को असंवैधानिक करार देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की। इस मामले की सुनवाई सोमवार को जस्टिस सचिन दत्ता करेंगे। दिलचस्प यह है कि इसी आदेश को न्यूज़लॉन्ड्री नामक मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ने भी चुनौती दी है, जिसकी याचिका भी इसी दिन सूचीबद्ध है।

रवीश कुमार की दलील

अपनी याचिका में रवीश कुमार ने कई अहम तर्क दिए—

  1. असंवैधानिक आदेश – यह आदेश कार्यपालिका शक्ति का असंवैधानिक और अभूतपूर्व प्रयोग है।
  2. लोकतांत्रिक शासन पर प्रहार – आदेश प्रेस की स्वतंत्रता को दबाता है, जो लोकतंत्र की बुनियाद है।
  3. संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन – यह आदेश शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) और न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत के विरुद्ध है।
  4. भविष्य के लिए खतरनाक उदाहरण – यदि ऐसे आदेशों को वैधता दी जाती है, तो यह सरकारों को पत्रकारिता पर नियंत्रण का रास्ता दिखा सकता है।

न्यूज़लॉन्ड्री की याचिका

न्यूज़लॉन्ड्री ने भी यही दलील दी है कि सरकार द्वारा मीडिया संस्थानों को कंटेंट हटाने का निर्देश देना प्रेस स्वतंत्रता पर सीधा हमला है। मीडिया संस्थान का कहना है कि सरकार का यह रवैया “सेंसरशिप” को वैध बनाने की कोशिश है।

संवैधानिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य

भारत का संविधान नागरिकों को अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। प्रेस की स्वतंत्रता भी इसी अधिकार का हिस्सा है। हालांकि, अनुच्छेद 19(2) कुछ “युक्तिसंगत प्रतिबंध” (reasonable restrictions) की अनुमति देता है, जैसे—राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, मानहानि इत्यादि।

लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी निजी कंपनी की प्रतिष्ठा की रक्षा के नाम पर सरकार सीधे मीडिया कंटेंट को हटाने का आदेश दे सकती है? परंपरागत रूप से मानहानि का निवारण न्यायालयों में सिविल या आपराधिक कार्रवाई द्वारा होता है। कार्यपालिका का सीधे हस्तक्षेप करना असामान्य और असंवैधानिक माना जा सकता है।

प्रेस की स्वतंत्रता और लोकतंत्र

भारत में प्रेस को “लोकतंत्र का चौथा स्तंभ” कहा जाता है। यदि सरकारें पत्रकारों या मीडिया संस्थानों को आदेश देकर कंटेंट हटाने लगेंगी, तो यह स्वतंत्र मीडिया की आत्मा को समाप्त कर देगा। पत्रकारों का कार्य सत्ता से प्रश्न पूछना और तथ्यों को सामने लाना है। यदि हर आलोचना को “आपत्तिजनक” या “मानहानिकारक” बताकर दबाया जाने लगेगा, तो लोकतंत्र केवल औपचारिकता बनकर रह जाएगा।

अडानी विवाद का व्यापक संदर्भ

अडानी समूह पिछले कुछ वर्षों से कई विवादों के केंद्र में रहा है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद से समूह पर वित्तीय अनियमितताओं और शेयर बाजार में हेरफेर के आरोप लगे। इस पृष्ठभूमि में जब पत्रकार या मीडिया संस्थान अडानी से संबंधित रिपोर्ट करते हैं, तो वह सिर्फ कंपनी तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सार्वजनिक हित से भी जुड़ जाता है। ऐसे में कंटेंट हटाने का आदेश पारदर्शिता और उत्तरदायित्व पर प्रश्न खड़े करता है।

संभावित परिणाम

यदि अदालत सरकार के आदेश को वैध मान लेती है, तो यह भविष्य में पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों की स्वतंत्रता पर गंभीर असर डालेगा। लेकिन यदि अदालत इस आदेश को असंवैधानिक करार देती है, तो यह प्रेस स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए एक मजबूत संदेश होगा कि सरकारें आलोचना को दबाने का प्रयास नहीं कर सकतीं।

निष्कर्ष

रवीश कुमार और न्यूज़लॉन्ड्री की याचिकाएँ केवल व्यक्तिगत या संस्थागत लड़ाई नहीं हैं, बल्कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की लड़ाई है। यह मामला यह तय करेगा कि भारत में पत्रकारिता स्वतंत्र रहेगी या कार्यपालिका के आदेशों के अधीन हो जाएगी।

इस पूरे विवाद से स्पष्ट होता है कि प्रेस की स्वतंत्रता को संरक्षित रखना न केवल मीडिया का कर्तव्य है, बल्कि न्यायपालिका की भी जिम्मेदारी है। यदि लोकतंत्र को जीवित और स्वस्थ बनाए रखना है, तो प्रेस को सच कहने और सत्ता से सवाल पूछने की स्वतंत्रता अवश्य मिलनी चाहिए।


संवैधानिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य (केस लॉ सहित)

भारत का संविधान नागरिकों को अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। प्रेस की स्वतंत्रता भी इसी अधिकार का हिस्सा है। हालांकि, अनुच्छेद 19(2) कुछ “युक्तिसंगत प्रतिबंध” की अनुमति देता है, जैसे—राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, मानहानि इत्यादि।

1. Romesh Thappar v. State of Madras (1950)

इस ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का आधार है और इसे केवल उन्हीं परिस्थितियों में सीमित किया जा सकता है जो संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। सरकार का मनमाना आदेश इस अधिकार का उल्लंघन होगा।

2. Indian Express Newspapers v. Union of India (1985)

सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस की स्वतंत्रता को लोकतंत्र का अभिन्न अंग बताया और कहा कि बिना स्वतंत्र प्रेस के लोकतांत्रिक शासन संभव नहीं है।

3. Shreya Singhal v. Union of India (2015)

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने IT Act की धारा 66A को असंवैधानिक घोषित किया था, क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध लगाती थी। यह केस सीधे तौर पर दिखाता है कि सरकार द्वारा ऑनलाइन कंटेंट को हटाने का आदेश प्रेस स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है।

4. Bennett Coleman & Co. v. Union of India (1972)

इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार अप्रत्यक्ष तरीकों से भी प्रेस पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती। यदि सरकारी नीतियाँ या आदेश प्रेस की आज़ादी को बाधित करते हैं, तो वे असंवैधानिक होंगे।


प्रेस की स्वतंत्रता और लोकतंत्र

भारत में प्रेस को “लोकतंत्र का चौथा स्तंभ” कहा जाता है। यदि सरकारें पत्रकारों या मीडिया संस्थानों को आदेश देकर कंटेंट हटाने लगेंगी, तो यह स्वतंत्र मीडिया की आत्मा को समाप्त कर देगा।

यहाँ सुप्रीम कोर्ट का एक और महत्वपूर्ण फैसला उल्लेखनीय है—

5. Maneka Gandhi v. Union of India (1978)

इस केस में कोर्ट ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता लोकतांत्रिक समाज के लिए अनिवार्य हैं। सरकार किसी भी आदेश से इन पर आघात नहीं कर सकती, जब तक कि वह संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत पूरी तरह उचित न ठहराया जाए।


निष्कर्ष

रवीश कुमार और न्यूज़लॉन्ड्री की याचिकाएँ केवल व्यक्तिगत या संस्थागत लड़ाई नहीं हैं, बल्कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की लड़ाई है।

उपरोक्त केस लॉ से स्पष्ट है कि—

  • Romesh Thappar और Indian Express केस प्रेस की स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानते हैं।
  • Shreya Singhal केस दिखाता है कि कार्यपालिका के मनमाने आदेश इंटरनेट और मीडिया स्वतंत्रता पर चोट करते हैं।
  • Bennett Coleman और Maneka Gandhi केस यह सिद्ध करते हैं कि लोकतंत्र में प्रेस पर नियंत्रण असंवैधानिक है।

अतः यह मामला सिर्फ अडानी समूह या किसी पत्रकार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की दिशा तय करेगा।