“‘अगर बच्चा प्रौढ़ समझ विकसित कर चुका है, तो उसकी बुद्धिमत्तापूर्ण इच्छा का सम्मान अनिवार्य है’ — Kerala High Court का मौलिक दृष्टिकोण”
प्रस्तावना
संघ-प्रशासन, माता-पिता, अभिभावक, न्यायपालिका—इन सभी के बीच नाबालिग बच्चों की परवरिश, उनकी सुरक्षा, और उनकी भलाई को लेकर सामाजिक-कानूनी विमर्श सदैव महत्वपूर्ण रहा है। विशेषतः उस समय जब एक बच्चे की कस्टडी, गुआर्डियनशिप, या अपवादस्वरूप अभिभावक निर्माण से जुड़े मामले सामने आते हैं। ऐसे विवादों में यह सवाल उठता है: “क्या केवल माता-पिता की योग्यता दृष्टिगत रखकर फैसला होना चाहिए, या उस बच्चे की अपनी इच्छा-प्रकाशित करना भी न्यायपूर्ण होगा?”
इस संदर्भ में, भारत के विधि-वर्तमान में एक स्थिर सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया है कि जब नाबालिग बच्चा “प्रोढ़ समझ” अर्थात् intelligent preference व्यक्त करने की स्थिति में हो, तो उसकी इच्छा की विचार-विनिमय प्रक्रिया न्यायालय द्वारा अनिवार्य रूप से अपनाई जानी चाहिए। इस लेख में हम विस्तार से देखेंगे कि यह सिद्धांत कैसे विकसित हुआ है, इसके संवैधानिक व विधिक आधार क्या हैं, और हाल ही में केरल हाई कोर्ट के संदर्भ में यह कैसे लागू हुआ है। साथ-ही हम व्यावहारिक चुनौतियों, नीतिगत प्रतिबिंबों और भविष्य-दिशाओं पर भी विचार करेंगे।
विधिक तथा संवैधानिक आधार
(१) विधिक स्रोत
- Guardians and Wards Act, 1890 की धारा 17(3) में प्रावधान है-
“अगर नाबालिग इतना पुराना है कि बुद्धिमत्तापूर्ण इच्छा (intelligent preference) बना सके, तो न्यायालय उस इच्छा पर विचार कर सकती है।”
- इस व्यवस्था से यह स्पष्ट होता है कि सिर्फ माता-पिता, प्राकृतिक अभिभावक या गुआर्डियन की योग्यता ही नहीं, बल्कि बच्चे की स्वयं-विकसित समझ और उसकी इच्छा को भी विधिक दृष्टि से पाया गया है।
- इसके अतिरिक्त, भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त है कि बच्चों को उनके अधिकार-क्षेत्र में आवाज़ देना—विशेषकर जब वे तैयार हों—उचित है। इसके आधार पर, जैसे कि United Nations Convention on the Rights of the Child (UNCRC) के अनुच्छेद 12 में बच्चे को “उस विषय-वस्तु में अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार” है, जब वह अपने स्तर पर सक्षम हो।
(२) न्यायिक दृष्टिकोण
- भारत के उच्चतम न्यायालय एवं विभिन्न हाई कोर्टों ने यह स्पष्ट किया है कि- “बच्चे की भलाई (welfare of the child) सर्वोपरि विचार है” और इस दृष्टि से जब बच्चा पर्याप्त समझ विकसित कर ले, उसकी राय/इच्छा को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
- उदाहरणस्वरूप, Nil Ratan Kundu v. Abhijit Kundu में (2008) यह कहा गया कि-
“… the child’s welfare is not to be measured by money only … the child’s ordinary wishes if the child is of sufficient age and maturity to form intelligent opinions, …”
- इसी प्रकार, विभिन्न हाई कोर्टों ने यह माना है कि यदि नाबालिग “मुल्यांकन-योग्य समझ” (intelligent understanding) बना सकता है, तो उसकी इच्छाप्रकट्स् (preference) को न्याय-निर्णय में तौलना चाहिए।
केरल हाई कोर्ट में मामला और दृष्टिकोण
(१) मामला का स्वरूप
वर्तमान में जहाँ “अगर बच्चा प्रौढ़ है…”-सिद्धांत पर चर्चा हो रही है, वहाँ Kerala High Court ने ऐसे कई मामलों में यह स्पष्ट किया है कि- बच्चों की इच्छाओं का विचार करना सिर्फ विकल्प नहीं, बल्कि विधिक दायित्व बन गया है। उदाहरण के लिए, जब एक नाबालिग-उम्र का बच्चा पर्याप्त समझ विकसित कर चुका हो और खुद यह व्यक्त कर सके कि वह किस अभिभावक-संपर्क में रहना चाहता है, तो कोर्ट उसकी इच्छा को मोनेटर कर सकती है।
(२) न्यायालय की टिप्पणी
केरल हाई कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों में यह दृष्टिकोण अपनाया है कि-
- “अगर बच्चा उस उम्र-स्तर पर पहुँच चुका है जहां वह अपनी प्राथमिकता (preference) व्यक्त कर सकता है, तो उस प्राथमिकता को सम्मान देना चाहिए।”
- इस तरह से, न्यायालय ने यह माना कि केवल वयस्क-अभिभावक के दावे को महत्व देना पर्याप्त नहीं होगा—बल्कि बच्चे की समझ, उसकी भावनाएँ, और उसकी इच्छा-स्वरूप महत्व धार्मिक है।
- इसके साथ-ही यह सुनिश्चित किया गया कि बच्चे से संवाद या उसकी इच्छा त्वरीत सीधे पूछना (interactive interview) न्यायिक दृष्टि से उपयुक्त और न्यायसंगत हो सकता है, बशर्ते उसे अप undue प्रभाव न दिया गया हो।
(३) व्यवहार-प्रभाव
- इस दृष्टिकोण के कारण अभिभावक-विवादों (custody/guardianship) में बच्चों की संवाद-योग्यता, उनकी प्रतिक्रिया-प्रस्तुति, और उनकी प्रति न्याय-सुनवाई में सहभागिता बढ़ गई है।
- राज्य-स्तर पर जैसे Kerala State Legal Services Authority (KeLSA) ने “Child Legal Assistance Programme (CLAP)” के माध्यम से बच्चों के वकील-समर्थित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था शुरू की है, ताकि बच्चे को स्वतंत्र रूप से अपनी इच्छाएँ प्रस्तुत करने का मंच मिले।
- इस तरह, सिर्फ माता-पिता की कानूनी स्थिति नहीं बल्कि बच्चे की इच्छा-स्वरूप न्याय प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी है।
सिद्धांत-विवेचन एवं चुनौतियाँ
(१) बच्चा-इच्छा vs सर्वोत्तम-भलाई (preference vs welfare)
हालाँकि बच्चे की इच्छा का सम्मान बेहद महत्वपूर्ण है, फिर भी न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि अंतिम फैसला हमेशा बच्चे के सर्वोत्तम-हित (best interest) के आधार पर होना चाहिए — सिर्फ इच्छा-अवलोकन से निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए।
यहाँ प्रश्न उठता है: अगर बच्चा कहे कि “मैं माँ-साथ रहना चाहता हूँ” लेकिन स्थिति यह कहे कि पिता-साथ रहना उसके लिये बेहतर विकास-परिस्थिति उपलब्ध कराता है?”
इस तरह, न्यायालय को बच्चे की इच्छा और उसके भलाई-वैकल्पिकता के बीच संतुलन करना पड़ता है।
(२) “प्रौढ़ समझ” की अवधारणा
यह महत्वपूर्ण है कि बच्चा सिर्फ इच्छा व्यक्त कर सके, बल्कि समझ-युक्त रूप से यह पसंद चुन सके कि उसकी परवरिश-परिस्थितियाँ क्या हों। यह “प्रौढ़ समझ” (maturity) का माप आसान नहीं है। इस मामले में न्यायालय को निम्न-प्रश्नों पर विचार करना होगा:
- बच्चा अपने विकल्पों की तुलना कर सकता है?
- उसने अपनी इच्छा व्यक्त करते समय किसी पैरेंट द्वारा अप्रत्यक्ष दबाव तो नहीं महसूस किया?
- उसकी राय-विकास वातावरण, शिक्षा-स्थिति, भावनात्मक-परिस्थितियाँ क्या हैं?
न्यायपालिका को इन कारकों के आधार पर यह आकलन करना पड़ता है कि बच्चा वास्तव में “intelligent preference” बना सकता है या नहीं।
(३) प्रक्रिया-पारदर्शिता व परीक्षण-मानदंड
कई विशेषज्ञ-विचारकों का यह कहना है कि जब बच्चे की इच्छा को निर्णय-प्रक्रिया में शामिल किया जा रहा है, तब न्यायालयों को स्पष्ट मानदंड निर्धारित करना चाहिए, जैसे-
- किस उम्र-स्तर को “समझ-योग्य” माना जाए?
- संवाद-प्रक्रिया (child interview) किस रूप में होनी चाहिए?
- बच्चे की इच्छा पर कितना व किस तरह का वजन देना चाहिए?
वर्तमान में इस दिशा में स्थानीय निर्बंध व दिशा-निर्देश विकसित होना अभी शेष है।
(४) समभाव-और-दायित्व का प्रश्न
बच्चों की इच्छा का सम्मान करना न्याय-स्मरणीय है, परन्तु इस ओर ध्यान देना होगा कि इसे अभिभावक-विवाद (custody) या गुआर्डियनशिप संघर्षों में एक नया हथियार न बना दिया जाए। उदाहरण के लिए, माता-पिता सहमत नहीं हों, बच्चे की इच्छा को बाहर-से प्रभावित किया गया हो या बच्चा केवल स्थिति के दबाव में अपनी बात कह रहा हो—ऐसे मामलों में न्यायपालिका को अत्याधिक सतर्क रहना चाहिए।
सामाजिक-विधिक प्रतिबिंब और भय-विचार
- सामाजिक समझ: संक्रमण-कालीन परिवारसंरचनाएँ (ریب्रोक्ड परिवार, अलगाव, पुनर्विवाह) बढ़ती जा रही हैं। ऐसे समय में बच्चे की इच्छाप्रकट्स् सुनना, उसकी आवाज़ को मानना सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो गया है।
- मानवाधिकार दृष्टि: बच्चों को केवल “देखभाल का विषय” न मानते हुए, उन्हें “व्यक्तित्व-धारक” मानकर उनकी राय-सुनने का अधिकार देना, मानवाधिकार सिद्धांतों के अनुरूप है।
- उच्चतम न्याय-विश्वास: जब न्यायालय बच्चे की इच्छा पर विचार करता है, तो यह न्यायपालिका की संवेदनशीलता, आधुनिकता व उनके फैसलों की स्वीकार्यता को बढ़ाता है।
- भेदभाव-और-मान-विचलन का जोखिम: फिर भी यह ध्यान देना होगा कि इच्छा-सुनवाई के नाम पर नाबालिग पर अभिभावक-दबाव, परिजनों की योग्यता-विरुद्ध फैसला या जल्दबाजी न हो जाए। न्यायपालिका को लगातार मार्गदर्शन, प्रशिक्षण व स्पष्ट दिशा-निर्देशों द्वारा इस जोखिम को कम करना होगा।
भविष्य-दिशा एवं सुझाव
- दिशा-निर्देश-विनियमन: राज्यों की न्यायपालिका तथा विधि-विभागों को “नाबालिग की इच्छा-सम्मान प्रक्रिया” हेतु मानक गाइडलाइन्स विकसित करनी चाहिए — उदाहरण के लिए- उम्र, संवाद-प्रोटोकॉल, विशेषज्ञ समिक्षा इत्यादि।
- विशेषज्ञ भागीदारी: सामाजिक-कार्यकर्ता, बाल-मनोवैज्ञानिक, प्रतिनिधि वकील (children’s representative) आदि को शामिल कर बच्चा-सुनवाई को और प्रभावशाली व सुरक्षित बनाया जाना चाहिए।
- प्रशिक्षण व संवेदनशीलता: न्यायाधीशों, विधि-प्रैक्टिशनरों, अभिभावकों को “बच्चे की इच्छा-सम्मान” पर प्रशिक्षण देना चाहिए, ताकि इस प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो।
- मामला-विशेष रिकॉर्डिंग व निरीक्षण: जब बच्चे की इच्छा को फैसला-प्रक्रिया में लिया जाए, तो उस संवाद और मूल्यांकन का विवरण रिकॉर्ड होना चाहिए ताकि बाद में प्रक्रिया-पारदर्शिता बनी रहे।
- लोक-संज्ञान व जागरूकता: अभिभावकों, सार्वजनिक-संस्थाओं तथा बच्चों को यह समझ देना होगा कि- इच्छा व्यक्त करना अधिकार है, पर उसका अर्थ यह नहीं कि बच्चे की राय तुरंत निर्णायक हो जाए; यह सिर्फ एक महत्वपूर्ण कारक है।
समापन
निष्कर्षतः, केरल हाई कोर्ट समेत भारतीय न्यायपालिका ने यह महत्वपूर्ण संकेत दिया है कि नाबालिग बच्चों को सिर्फ “परवर्ती संरक्षा-वस्तु” मानने का समय गया; उन्हें समझ, इच्छा और सम्मान-योग्य मानकर उनकी राय-सुनना अब विधिक तथा सामाजिक आवश्यकता बन चुकी है। जब बच्चा “प्रौढ़ समझ” विकसित कर लेता है, तब उसकी इच्छा-प्रकट्स् का सम्मान न्यायपालिका के समक्ष एक गंभीर दायित्व बन जाती है। परंतु इस सम्मान के साथ एक बहुत-बड़ा चैलेंज भी जुड़ा है — वह है कि इस प्रक्रिया में बच्चे की भलाई (welfare) सर्वोपरि बनी रहे, और इच्छा-सम्मान निर्णय-प्रक्रिया का एक मात्र आधार न बन जाए।
इसलिए, यह आवश्यक है कि न्याय-प्रक्रिया में बच्चे की आवाज़ को रखें, उसे प्रभावी बनाएं, किन्तु उसे अन्य आवश्यक-परिस्थितियों, अभिभावक-योग्यता, स्थिरता व समग्र विकास-उद्देश्यों के साथ संतुलित करें। यदि ऐसा हुआ, तो बच्चों की न्याय-वाणी सुनने वाला हमारा न्यायप्रणाली एक नया-आधुनिक, संवेदनशील और मान-उपयुक्त रूप ले सकेगी।