लेख शीर्षक:
“अंतरिम आदेश (Interlocutory Order) जो अंतिम निर्णय (Final Decree) की ओर अग्रसर प्रक्रिया का एक हिस्सा है, यदि उसके विरुद्ध अपील नहीं की गई हो, तब भी वह अंतिम निर्णय से उत्पन्न अपील में एक आधार बन सकता है: कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय”
🔷 परिचय:
न्यायिक प्रक्रिया में अंतरिम आदेश (Interlocutory Order) वे आदेश होते हैं जो मुकदमे की कार्यवाही के दौरान पारित किए जाते हैं और जो अंतिम निर्णय नहीं होते, किंतु अंतिम निर्णय की ओर अग्रसर प्रक्रिया में एक आवश्यक कदम होते हैं। ऐसे आदेशों के विरुद्ध सामान्यतः तत्काल अपील की जा सकती है, परंतु एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि यदि किसी अंतरिम आदेश के विरुद्ध अलग से अपील नहीं की गई हो, तो क्या वह आदेश बाद में अंतिम डिक्री के विरुद्ध अपील में चुनौती का आधार बन सकता है?
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस संबंध में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई अंतरिम आदेश अंतिम निर्णय (Final Decree) की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया का हिस्सा है और उस पर अलग से अपील नहीं की गई, तब भी उसे अंतिम डिक्री के विरुद्ध अपील में चुनौती दी जा सकती है।
🔷 न्यायालय का तर्क (Judicial Reasoning):
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि:
“An interlocutory order which is a step in the procedure that leads to the final decree, if had not been appealed against, can still be made a ground in an appeal arising out of the decree.”
इसका तात्पर्य यह है कि यदि किसी आदेश ने मुकदमे की दिशा या प्रक्रिया को इस प्रकार प्रभावित किया है जिससे अंततः अंतिम निर्णय पर प्रभाव पड़ा, तो भले ही उस आदेश पर उसी समय अपील न की गई हो, परंतु जब अंतिम निर्णय के विरुद्ध अपील की जाती है, तब उस अंतरिम आदेश को चुनौती देना पूरी तरह वैध है।
🔷 इस निर्णय का महत्व:
- न्यायिक समीक्षा की व्यापकता सुनिश्चित होती है:
यह सिद्धांत न्यायिक प्रक्रिया को तकनीकी सीमाओं में बाधित नहीं होने देता। यह सुनिश्चित करता है कि किसी अंतरिम आदेश के कारण यदि किसी पक्ष को अंतिम निर्णय में नुकसान हुआ है, तो उसे न्याय पाने का अवसर अंतिम अपील में मिल सके। - न्याय के सिद्धांतों का संरक्षण:
यह निर्णय न्याय न केवल किया जाए, बल्कि होते हुए प्रतीत भी हो इस सिद्धांत को मजबूत करता है। - न्यायालयों की प्रक्रिया में लचीलापन (Flexibility):
यह निर्णय यह भी दर्शाता है कि न्यायालय प्रक्रिया को इतना कठोर नहीं बनाना चाहता कि केवल तकनीकी चूक के कारण किसी पक्ष को न्याय से वंचित कर दिया जाए।
🔷 प्रासंगिक उदाहरण:
मान लीजिए कि एक दीवानी मुकदमे में न्यायालय ने मध्यावधि में किसी याचिका को खारिज कर दिया जिससे किसी पक्ष को गंभीर नुकसान हुआ, और वह आदेश अंतिम डिक्री तक प्रभाव डालता रहा। उस समय उस आदेश पर अपील नहीं की गई। लेकिन जब अंतिम डिक्री पारित हुई, तब उस पक्ष ने डिक्री के विरुद्ध अपील दायर की। अब वह पक्ष उस पूर्व आदेश को अपील में चुनौती का आधार बना सकता है, भले ही उस पर तत्कालीन अपील न की गई हो।
🔷 निष्कर्ष:
कर्नाटक उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में एक अत्यंत प्रासंगिक और न्यायपूर्ण सिद्धांत प्रस्तुत करता है। यह निर्णय दर्शाता है कि न्यायालय कानून की व्याख्या करते समय केवल प्रक्रिया की कठोरता नहीं, बल्कि न्याय के मूल सिद्धांतों को भी प्राथमिकता देता है। इससे अपीलीय प्रक्रिया अधिक प्रभावशाली, समावेशी और निष्पक्ष बनती है।