शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त की व्याख्या करें। भारतीय संविधान के अन्तर्गत इस सिद्धान्त की क्या स्थिति है? यह सिद्धान्त भारतीय संविधान में किस सीमा तक समाविष्ट है?
Discuss the Principle of Separation of Power. What is the position of this principle under Indian Constitution? How far the doctrine (principle) been incorporated in Indian Constitution?
(ii) डायसी का विधि का शासन क्या है? स्पष्ट करें।
What is Prof. Dicey’s Rule of Law? Explain.
उत्तर- (i) सुप्रसिद्ध संवैधानिक विधि विद्वान प्रोफेसर ए० वी० डायसी ने कहा था, शक्तियाँ व्यक्तियों को भ्रष्ट बनाती हैं (powers corrupts the man and absolute power corrupts absolutely)। इसलिए यह वांछनीय है कि शक्तियों का एक राज्य के एक ही अंग में केन्द्रीयकरण (सान्द्रीकरण Concentration) न हो अर्थात् राज्य की शक्तियों का राज्य के विभिन्न अंगों में पृथक्करण होना चाहिए। दूसरे शब्दों में राज्य को कार्यपालिका में विधायी शक्ति तथा न्यायिक शक्ति विहित नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार विधायिनी में कार्यपालिका शक्ति तथा न्यायिक शक्ति विहित नहीं होनी चाहिए। न्यायपालिका को कार्यपालिका (executive) तथा विधायी शक्ति प्राप्त नहीं होनी चाहिए। इसी को शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त कहते हैं।
शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त 18वीं शताब्दी के फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू द्वारा प्रथम बार प्रतिपादित किया गया। उनके अनुसार यदि तीनों शक्तियाँ एक अंग में केन्द्रित हो जायेंगी तो वह निरंकुश हो जायेगा। इस सिद्धान्त का कठोरतापूर्वक पालन लोकतांत्रिक राष्ट्र द्वारा जिसने संसदीय शासन प्रणाली अपनाई है, सम्भव नहीं है। परन्तु अमेरिकी संवधिान में उसका पालन काफी हद तक सुनिश्चित किया गया है। अमेरिका में सरकार की शक्तियाँ पृथक् पृथक् तीनों अंगों में निहित हैं। वहाँ कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है। राष्ट्रपति तथा उसका मंत्रिमण्डल विधानमण्डल के सदस्य नहीं होते। विधायी शक्ति अमेरिका में कांग्रेस (संसद) में निहित है। न्यायपालिका की शक्ति अमेरिकन सुप्रीम कोर्ट में निहित है। तीनों अंगों द्वारा उनको शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के पर्याप्त उपबन्ध अमेरिकन संविधान में हैं।
इंग्लैण्ड में संसदीय शासन व्यवस्था है तथा वहाँ शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त पूरी तरह से लागू नहीं होता। यहाँ मंत्रिमण्डल के सदस्य कार्यपालिका तथा विधान मण्डल (संसद) दोनों के सदस्य होते हैं। ब्रिटिश संसद का ऊपरी सदन हाउस ऑफ लाईस न्यायिक शक्ति का प्रयोग करता है तथा वह ब्रिटेन का सर्वोच्च न्यायालय भी है। लाई चान्सलर न्यायपालिका का प्रधान होता है तथा साथ ही वह कार्यपालिका अर्थात् मंत्रिमण्डल का सदस्य होता है।
भारतीय स्थिति (Indian Position) – भारतीय संविधान के अन्तर्गत अपनाई गई शासन व्यवस्था इंग्लैण्ड की भाँति संसदीय शासन व्यवस्था है। भारत में कार्यपालिका अर्थात् मंत्रिमण्डल के सदस्य विधान मण्डल के भी सदस्य होते हैं। यहाँ मंत्रिमण्डल का सदस्य होने के लिए विधान मण्डल का सदस्य होना आवश्यक है। यदि नियुक्ति के समय वह विधान मण्डल का सदस्य नहीं है तो नियुक्ति के छः मास के भीतर उसे विधान मण्डल के किसी सदन की सदस्यता ग्रहण कर लेना आवश्यक है। राष्ट्रपति जो कार्यपालिका का अध्यक्ष है, उसे अनुच्छेद 72 के अन्तर्गत क्षमादान का अधिकार है जो न्यायिक शक्ति है। राष्ट्रपति जो कार्यपालिका का अध्यक्ष है, वह उस समय जब विधान मण्डल का सत्र नहीं चल रहा है, अध्यादेश जारी कर सकता है (अनुच्छेद 132)। संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका का तथा विधायिका का पृथक्करण सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त न्यायपालिका का सर्वोच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासन का कार्य करता है। यह एक कार्यपालिकीय कार्य है तथा उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों के सम्बन्ध में तथा स्वयं अपने कार्यकलापों को विनियमित करने के उद्देश्य से विनियम तथा नियम बनाते हैं। यह विधायिका का कार्य है। संसद के सदस्य तथा मंत्रिमण्डल अपने कर्त्तव्यों के निष्पादन में कुछ निर्णय लेते हैं जो अर्द्ध न्यायिक प्रकृति के होते हैं। अतः ऐसा करते समय वे न्यायिक प्रकृति के कार्य करते हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आधुनिक युग में राज्य के विभिन्न अंगों को भाँति-भाँति के कार्य निष्पादित करने होते हैं। अतः उनके मध्य कठोरतापूर्वक पृथक्करण (water-tight separation) के सिद्धान्त को लागू करना सम्भव नहीं होता है।
भारतीय संविधान में यद्यपि शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को कठोरतापूर्वक (In water tight manner) लागू नहीं किया गया है परन्तु इस बात का ध्यान रखा गया है कि सरकार का कोई अंग निरंकुश न हो जाय। संविधान में रोकथाम (check and balance) की व्यवस्था की गई है और शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त का उद्देश्य यही है इन अंगों में रोकथाम (check and balance) की व्यवस्था को हो कठोरतापूर्वक लागू करने का प्रयास किया जाय।
भारत में कार्यपालिका को संसद के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है तथा न्यायपालिका को यह अधिकार है कि वह कार्यपालिका तथा विधायिका के मनमाने ढंग से किये गये कार्यों को अविधिमान्य घोषित करके तथा उनके कार्यों पर पैनी दृष्टि रखे तथा हमारी न्यायपालिका इस कार्य को बखूबी कर रही है।
भारतीय संविधान के अन्तर्गत शक्ति पृथक्करणीयता के सिद्धान्त की स्थिति– इसके बारे में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में प्रावधान किया गया है, जिसमें कहा गया है कि संविधान पूर्व निर्मित विधि के यदि कुछ प्रावधान संविधान के प्रावधानों से असंगत है तो इससे सम्पूर्ण विधि शून्य नहीं होगी अपितु केवल वे ही उपबन्ध शून्य माने जायेंगे जो असंगत हैं तथा शेष उपबन्ध यथावत् प्रभावशील बने रहेंगे। लेकिन शर्त यह है कि ऐसे असंगत प्रावधान शेष प्रावधानों को प्रभावित किये बिना आसानी से पृथक किये जा सकते हों।
स्टेट ऑफ बिहार बनाम कामेश्वर सिंह, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 252 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि किसी अधिनियम के असंगत प्रावधान अन्य प्रावधानों में इस प्रकार मिले-जुले हैं कि उनको पृथक् कर देने से सम्पूर्ण अधिनियम का उद्देश्य ही विफल हो जाता है तो वह सम्पूर्ण अधिनियम असंवैधानिक घोषित किये जाने योग्य होगा।
उत्तर- (ii) डायसी ने विधि के शासन की संकल्पना इंग्लैण्ड को ध्यान में रखकर की थी। डायसी ने कहा था कि इंग्लैण्ड में विधि का शासन है न कि व्यक्ति का अर्थात् विधि के शासन में भेदभाव तथा असमानता का सदैव अभाव होना चाहिए। वास्तव में विधि के शासन की कल्पना इंग्लैण्ड में सर्वप्रथम एडवर्ड कोक ने की थी। एडवर्ड कोक ने कहा था कि सम्राट को विधि तथा ईश्वर के अधीन होना चाहिए। विधि के शासन की परिकल्पना से उसका तात्पर्य था कार्यपालिका पर विधि की सम्प्रभुता या सर्वोच्चता। वह यह कहना चाहता है कि प्रशासन को विधि द्वारा प्रदत्त विवेकाधीन अधिकार के अतिरिक्त कोई भी विवेकाधीन अधिकार नहीं होना चाहिए। विधि के शासन का वास्तविक अर्थ है विवेक की अनुपस्थिति। विधि का शासन मनमानेपन या विवेकाधीन शक्ति का विलोम है। इस परिकल्पना का दूसरा अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को उपयुक्त प्रक्रिया द्वारा स्थापित विधि के अन्तर्गत ही विधि के अतिक्रमण के लिए सिर्फ न्ययालय द्वारा ही शारीरिक या साम्पत्तिक रूप से दण्डित किया जा सकता है अन्यथा नहीं। विधि के शासन से डायसी का यह भी तात्पर्य था कि इंग्लैण्ड में फ्रांस की भाँति पृथक् न्यायालय नहीं है। फ्रांस में प्रशासी न्यायालयों की एक श्रेणीबद्ध श्रृंखला है। डायसी ऐसे पृथक् न्यायालयों के विरुद्ध थे। डायसी के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह सम्राट हो या सामान्य व्यक्ति, सामान्य विधि द्वारा शासित होता है तथा सामान्य न्यायालयों के अध्यधीन होता है। यद्यपि डायसी के आलोचकों के अनुसार डायसी ने प्रशासी न्यायालयों की फ्रेंच पद्धति का भ्रामक अर्थ लगाया था।
यद्यपि विधि के शासन की परिकल्पना सर्वप्रथम एडवर्ड कोक द्वारा प्रतिपादित की गई। परन्तु प्रो० ए० वी० डायसी ने अपनी पुस्तक ‘The Law of Constitution’ में विधि के प्रशासन ‘Rule of Law’ की परिकल्पना की विस्तृत मीमांसा प्रस्तुत की जो विधि के विद्वानों में काफी चर्चित रही।
डायसी के विधि के शासन की परिकल्पना (concept) के तीन अर्थ हैं –
(1) विधि की सर्वोच्चता (Supremacy of Law)– डायसी के अनुसार विधि के शासन से तात्पर्य मनमानी शक्ति के विपरीत नियमित विधि की सर्वोच्चता या प्रभुता है। विधि का शासन मनमानेपन के अस्तित्व को अपवर्जित करता है। विधि के शासन के अनुसार सरकार को भी विस्तृत विवेकाधीन अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। डायसी के अनुसार मनमानेपन की शक्ति या विवेकाधिकार सामान्य नागरिकों के अधिकार को असुरक्षा की ओर उन्मुख करता है। विधि का शासन इस असुरक्षा के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है। यदि हम विधि की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं करते हैं तो नागरिकों के अधिकार असुरक्षित हो जायेंगे। इस प्रकार विधि के शासन की परिकल्पना, सरकार के मनमानेपन या विवेकाधिकार पर अंकुश लगाकर सामान्य नागरिक के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करता है। आदर्श समाज में विधि ही सर्वोच्च है न कि व्यक्ति।
(2) विधि के समक्ष समानता (Equality before Law)-विधि के शासन का दूसरा अर्थ डायसी के अनुसार विधि के समक्ष समानता तथा विधि समान संरक्षण है (Equality before law and equal protection of law)। डायसी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह सामान्य व्यक्ति हो या सम्राट हो या ऊँचे से ऊँचे पद पर स्थित कोई व्यक्ति हो, देश की विधि के अधीन है तथा उसे देश की सामान्य अदालत के अधीन होना होगा। सम्राट या किसी ऊँचे पद पर पदासीन व्यक्ति को विधि के समक्ष कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। इसी आधार पर डायसी ने फ्रांस की प्रशासी न्याय पद्धति की आलोचना की। फ्रांस में प्रशासन तथा सामान्य व्यक्ति के मध्य विवादों के निस्तारण हेतु पृथक् प्रशासी न्यायालयों को श्रृंखला है। डायसी के अनुसार यह व्यवस्था विधि शासन परिकल्पना के विरुद्ध है क्योंकि विधि के शासन की परिकल्पना के अन्तर्गत सिर्फ सामान्य न्यायालय का अस्तित्व ही अनुमत है। विशिष्ट न्यायालय की परिकल्पना विधि के शासन की परिकल्पना से मेल नहीं खाती क्योंकि विशिष्ट न्यायालय का अस्तित्व ही विधि के समक्ष समानता को नकारता है। डायसी एक भ्रम के अन्तर्गत थे कि फ्रांस के प्रशासी न्यायालय प्रशासन को विशेषाधिकार प्रदान करते थे। अत: इस पद्धति को डायसी ब्रिटिश संविधान के विरुद्ध मानते थे।
न्यायालयों की सम्प्रभुता (Predominance of Courts)– डायसी के विधि के शासन का तीसरा तात्पर्य एक अवधारणा है जिसके अनुसार सामान्य जन के अधिकार किसी संविधान में अन्तर्निहित प्रावधान नहीं है अपितु सामान्य जनों को अधिकार न्यायालय द्वारा सांविधानिक प्रावधानों की व्याख्या के माध्यम से प्राप्त होते हैं। डायसी कहते हैं- इंग्लैण्ड में अलिखित संविधान है अतः सामान्य नागरिकों के अधिकारों का मूल स्रोत कॉमन लॉ में नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं वे न्यायिक निर्णयों के फलस्वरूप प्राप्त हैं। यदि सामान्य न्यायालय किसी अधिकार को अपने निर्णय से मान्यता प्रदान नहीं करता तो सामान्य नागरिक के लिए उस अधिकार का कोई अर्थ नहीं होता। जहाँ लिखित संविधान है वहाँ संविधान के अन्तर्गत प्रदत्त अधिकार का कोई अर्थ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य न्यायालयों द्वारा मान्यता न प्रदान कर दी जाय। इस प्रकार डायसी आम नागरिकों के अधिकारों के सम्बन्ध में भी सामान्य न्यायालय की प्रभुता को महत्व देते हैं। डायसी नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य का स्रोत संविधान को नहीं मानते परन्तु डायसी के अनुसार इनका स्रोत न्यायालय है।
डायसी के सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Diecy’s theory) – डायसी का विधि के शासन की परिकल्पना का प्रथम अर्थ है विधि की सर्वोच्चता। इस अर्थ के अनुसार सरकार को विवेक शक्ति प्रदान नहीं की जानी चाहिए। परन्तु आधुनिक तकनीकी युग में विशेषज्ञता तथा आपात स्थिति से निपटने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि प्रशासनिक अधिकारियों को विवेकाधीन शक्ति प्रदान की जाय जिससे वे आपात स्थिति से निपट सकें तथा यदि किसी मामले में विशेषतया आवश्यक है तो प्रशासनिक अधिकारियों की विशेषज्ञता का उपयोग किया जा सके क्योंकि विधायिका से प्रत्येक क्षेत्रों में विशेषज्ञता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इस प्रकार प्रशासन को विवेकाधीन शक्ति प्रदत्त किया जाना आवश्यक बुराई के रूप में अपरिहार्य है। आवश्यक यह है कि उनकी विवेकाधीन शक्ति पर प्रभावी नियन्त्रण हो जिससे इनके दुरुपयोग की सम्भावना को अधिक से अधिक कम किया जा सके। यह नियन्त्रण न्यायालीय निरीक्षण के प्रावधान के माध्यम से स्थापित किया जा सकता है।
डायसी के विधि के शासन का दूसरा पहलू है विधि के समक्ष समानता अर्थात् सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान हैं; कोई विधि से ऊपर नहीं है। डायसी कहते हैं कि किसी को विशेषाधिकार प्रदान नहीं किया जाना चाहिए। चाहे सम्राट हो या उच्च पदस्थ प्रशासी अधिकारी सभी को सामान्य जनता की भाँति न्यायिक प्रक्रिया के अधीन होना चाहिए। परन्तु वर्तमान युग में राष्ट्रपति, राज्यपाल तथा विदेशी दूतों को न्यायालय की प्रक्रिया से छूट प्राप्त है। डायसी के अपने देश में कुछ व्यक्तियों को न्यायिक प्रक्रिया से छूट प्राप्त है। डायसी को फ्रान्स में प्रचलित प्रशासी न्यायालयों की श्रृंखला के बारे में यह भ्रम था कि इस न्यायालय में प्रशासी अधिकारियों को छूट या विशेषाधिकार प्राप्त है। अतः डायसी प्रशासी न्यायालयों की उपस्थिति को विधि के समक्ष समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध मानते थे। उनके अनुसार इंग्लैण्ड में न्याय प्रशासन के लिए पृथक् न्यायालय नहीं हैं। परन्तु इंग्लैण्ड में ऐसे न्यायाधिकरणों (Tribunals) की कमी नहीं है जिन्हें सामान्य न्यायालय नहीं कहा जा सकता तथा जो सामान्य विधि से प्रशासित नहीं होते। कोर्ट मार्शल तथा बाल अपराध न्यायाधिकरण के अतिरिक्त अन्य न्यायाधिकरण इसके उदाहरण हैं। इन न्यायाधिकरण सदस्यों विशिष्ट अधिकार तथा उन्मुक्तियाँ प्राप्त हैं। कुछ मामलों में ये न्यायाधिकरण सामान्य न्यायालय से ऊपर हैं। होडल्स वर्थ ने सत्य ही कहा है कि यदि इन न्यायाधिकरणों पर न्यायिक निगरानी का अंकुश है तो विशिष्ट न्यायालयों की उपस्थिति से कोई खतरा नहीं है। आजकल विश्व की प्रत्येक पद्धति में न्यायालयों को विशेषाधिकार दिया जाना अपरिहार्य है। जैसा कि श्रीमती इंदिरा गाँधी बनाम राजनारायण, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 2299 नामक बाद में न्यायमूर्ति मैथ्यू ने उल्लेख किया है, स्वयं डायसी ने अपनी पुस्तक के उत्तरवर्ती संस्करण में इस सच्चाई को स्वीकार किया है।
विधि का शासन तथा भारतीय संविधान (Rule of Law and Indian Constitution) – भारत में संविधान सर्वोच्च है अतः संविधान के प्रावधान स्वयं में विधि के शासन की भाँति प्रशासी कृत्यों पर एक अंकुश है। यदि कार्यपालिका का कोई भी कार्य संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है तो वह अवैध तथा आधिकारातीत (Ultra vires) होने के कारण निरस्त कर दिया जायेगा। इसके अतिरिक्त भारतीय नागरिकों को संविधान के भाग तीन में कुछ मौलिक अधिकार प्रदान कये गये हैं। कार्यपालिका (प्रशासन) का प्रत्येक कार्य संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय द्वारा तथा अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय द्वारा कसौटी पर कसा जायेगा तथा यदि कोई कार्य मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो यह निरस्त घोषित कर दिया जायेगा।
विधि के समक्ष समानता – भारतीय संविधान के अन्तर्गत समता का अधिकार अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत सुनिश्चित किया गया है। इस अनुच्छेद का आशय यह है कि समान परिस्थितियों में किसी व्यक्ति के साथ जाति, लिंग, पद तथा निवास स्थान के आधार पर विभेद की अनुमति नहीं होगी। विधि की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान होंगे परन्तु न्यायिक निर्णयों ने यह सिद्धान्त सुस्थापित कर दिया है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 वर्ग विभेद की अनुमति देता है अर्थात् कुछ व्यक्ति यदि समान परिस्थिति के अन्तर्गत हैं तो उनका एक वर्ग बनाकर दूसरे वर्ग से विभेद की अनुमति तो है परन्तु एक ही वर्ग के दो व्यक्तियों के मध्य विभेद करने की अनुमति संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत नहीं है।
न्यायमूर्ति पी० एन० भगवती ने बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1325 नामक बाद में यहाँ तक कहा कि विधि शासन भारतीय संविधान के रोम-रोम में छाया हुआ है। विधि शासन भारतीय संविधान का मूलभूत ढाँचा या मूलभूत लक्षणों का एक अंग है।
विवेकाधिकार का अस्तित्व परन्तु मनमानेपन का अपवर्जन (Existence of discretion but exclusion of Arbitrariness)– विधि के शासन की संकल्पना भारतीय परिवेश में विवेकाधिकार प्रदान किये जाने की आवश्यकता को तो स्वीकारती है परन्तु मनमानेपन को अधिकारों के दुरुपयोग का मुख्य कारण समझती है।
इस सम्बन्ध में श्रीमती इंदिरा गाँधी बनाम राजनारायण, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 2299 नामक वाद में न्यायमूर्ति मैथ्यू ने कहा कि विश्व में कोई भी सरकार अथवा विधि पद्धति नहीं है जिसमें विवेकाधीन अधिकारों को स्वीकार न किया गया हो।
सोमराज बनाम हरियाणा राज्य, (1990) 2 सु० को० के० 653 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि मनमानी करने की शक्ति का अभाव विधि नियमों को प्रमुख मान्यता है जिस पर सम्पूर्ण सांविधिक व्यवस्था आधारित है। यदि विवेकाधिकार का प्रयोग बिना किसी सिद्धान्त या विधि के किया जाता है तो यह विधि के शासन के सिद्धान्त के विरोध के समतुल्य है।
न्यायालय की सर्वोच्चता- भारतीय संविधान में नागरिकों को प्रदत्त अधिकार न्यायालय के माध्यम से लागू करवाये जाते हैं। हाल के वर्षों में न्यायिक सक्रियता ने इस तथ्य को साबित कर दिया है। न्यायालय की सर्वोच्चता भारत में मंत्री, विधायिका तथा सभी वर्गों ने स्वीकार की है।
केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1973 सु० को० 1461 नामक बाद में विधि के शासन को भारतीय संविधान का मूलभूत ढाँचा माना गया है जिसे संसद के संशोधन द्वारा भी मिटाया नहीं जा सकता। ए० डी० एम० जबलपुर बनाम शिवाकान्त शुक्ला, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 1207 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधि के शासन के अनुसार कार्य करना हमारे संविधान का प्रमुख लक्षण है तथा विधि का शासन हमारे संविधान का मूलभूत ढाँचा है।
इस प्रकार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हमारे संविधान में विधि के शासन के तीनों सिद्धान्त अपनाये गये हैं। भारतीय संविधान विधि कि समक्ष समानता, मनमानेपन का अपवर्जन तथा न्यायिक अधिकारिता को सर्वोच्चता से ही स्वीकार करता है।