“जालसाजी और धोखाधड़ी के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषमुक्ति : प्राथमिक साक्ष्य के अभाव में हस्तलेख विशेषज्ञ की गवाही अपर्याप्त” सी.कमलकन्नन बनाम तमिलनाडु राज्य
(C. Kamalakannan v. State of Tamil Nadu,
इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 471 (जालसाजी से दस्तावेज़ का उपयोग करना), धारा 120B (आपराधिक षड्यंत्र), और धारा 109 (उकसावे से अपराध) के तहत आरोपी को दोषी ठहराया गया था।
मूल डाक लिफाफा (postal cover) जो कि मुख्य साक्ष्य था, उसे अभियोजन पक्ष अदालत में प्रस्तुत नहीं कर सका।
हस्तलेख विशेषज्ञ की गवाही इसी अप्रस्तुत दस्तावेज़ पर आधारित थी, जिसे अदालत में प्रमाणित नहीं किया जा सका।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब प्राथमिक साक्ष्य मौजूद नहीं है, तो केवल विशेषज्ञ राय (Section 45, Indian Evidence Act) के आधार पर दोषसिद्धि नहीं दी जा सकती।
ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषसिद्धि को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया और कहा कि मजबूत, प्रत्यक्ष और मूल साक्ष्य के अभाव में आपराधिक दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता।
लंबा लेख:
भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया कि केवल हस्तलेख विशेषज्ञ की गवाही के आधार पर किसी व्यक्ति को धोखाधड़ी (IPC धारा 471), षड्यंत्र (धारा 120B), और उकसावे (धारा 109) जैसे गंभीर अपराधों में दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत न किए जाएं।
इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराते हुए एक हस्तलेख विशेषज्ञ की गवाही पर भरोसा किया, जिसने यह राय दी थी कि एक विशेष डाक लिफाफे पर किया गया लेखन आरोपी का था। किंतु प्रासिक्यूशन (अभियोजन पक्ष) द्वारा उस डाक लिफाफे का मूल दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया, जोकि इस पूरे मामले का आधार था।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल राय के आधार पर, विशेषकर जब वह राय किसी अप्रस्तुत दस्तावेज पर आधारित हो, किसी को दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि हस्तलेख विशेषज्ञ की गवाही तब तक विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती जब तक वह यह प्रमाणित न करे कि उसने जिस दस्तावेज की जांच की, वह वही है जो अदालत में प्रस्तुत किया गया है।
इसके अतिरिक्त, अभियोजन यह भी सिद्ध नहीं कर सका कि विवादित डाक लिफाफा वास्तव में मौजूद था, जिससे संदेह का लाभ आरोपी को मिल गया। कोर्ट ने कहा कि प्राथमिक साक्ष्य का अभाव, जैसे कि मूल डाक लिफाफा, इस पूरे मुकदमे की नींव को हिला देता है। बिना उस दस्तावेज के, आरोपी को आरोपों से जोड़ना कानूनी दृष्टि से अनुचित है।
इस आधार पर, उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि को रद्द करते हुए अभियुक्त को बरी कर दिया, और यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में प्राथमिक साक्ष्य के महत्व को रेखांकित करता है। यह फैसला यह भी स्पष्ट करता है कि केवल विशेषज्ञ राय या परोक्ष प्रमाणों के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि मजबूत, प्रत्यक्ष और कानूनी रूप से मान्य साक्ष्य प्रस्तुत न किए जाएं।
यह निर्णय भविष्य में ऐसे मामलों के लिए दिशा-निर्देशक सिद्धांत प्रस्तुत करता है, जहां तकनीकी या वैज्ञानिक साक्ष्य पेश किए जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि न्याय केवल संदेह या राय पर आधारित नहीं हो सकता, बल्कि उसे ठोस साक्ष्य के आधार पर ही स्थापित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष:
यह फैसला अभियोजन पक्ष को यह याद दिलाता है कि दोषसिद्धि की नींव हमेशा प्राथमिक और प्रमाणित साक्ष्य पर टिकी होनी चाहिए। जब तक ऐसी सामग्री उपलब्ध नहीं है, केवल विशेषज्ञ गवाही के आधार पर दोषसिद्धि न केवल न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है, बल्कि यह एक निर्दोष व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन भी है।