झूठे अपहरण केस में दृष्टिबाधित अमीचंद को मिली न्याय की रोशनी: हाईकोर्ट ने रिहाई और 2 लाख मुआवजे का दिया आदेश
— न्यायपालिका ने दी स्वतंत्रता की सर्वोच्चता को संजीवनी
राजस्थान हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश में यह स्पष्ट संदेश दिया है कि “निर्दोष व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि संवैधानिक मूल्य है और उसे तकनीकीताओं के नाम पर सलाखों के पीछे रखना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।” इसी सिद्धांत को आधार बनाते हुए न्यायमूर्ति मनोज कुमार गर्ग ने झूठे अपहरण केस में फंसाए गए दृष्टिबाधित अमीचंद की रिहाई का आदेश दिया और राज्य सरकार को 2 लाख रुपये मुआवजा देने का निर्देश भी पारित किया।
मामले की पृष्ठभूमि:
चूरू जिले के तारानगर थाना क्षेत्र निवासी अमीचंद, जो जन्म से दृष्टिबाधित है, पर अपहरण और मारपीट का गंभीर आरोप लगाया गया था। इस आधार पर वह दो माह से जेल में बंद था। लेकिन बाद में एक आईपीएस ट्रेनी अधिकारी द्वारा की गई स्वतंत्र जांच में यह स्पष्ट हुआ कि अमीचंद को जानबूझकर फंसाया गया था और असली दोषियों को बचाने का प्रयास किया गया।
न्याय की ओर पहला कदम – रिवीजन याचिका:
अमीचंद की ओर से अधिवक्ता कौशल गौतम ने हाईकोर्ट में रिवीजन याचिका दायर की। उन्होंने तर्क दिया कि अमीचंद पूर्णतः दृष्टिबाधित है और उसे न केवल झूठे केस में फंसाया गया, बल्कि इस मामले में असली दोषियों की रक्षा की गई।
ट्रायल कोर्ट का रवैया:
एडीजे, तारानगर ने पहले तकनीकी आधार पर यह कहते हुए रिहाई का अनुरोध खारिज कर दिया था कि पुनः जांच के लिए कोर्ट की पूर्व अनुमति नहीं ली गई। लेकिन हाईकोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि तकनीकी खामियों को निर्दोष की स्वतंत्रता पर वरीयता नहीं दी जा सकती।
कोर्ट के कड़े निर्देश:
- अमीचंद को तुरंत रिहा किया जाए।
- दृष्टिबाधिता की पुष्टि हेतु 15 दिन में मेडिकल परीक्षण कराकर जिला कलक्टर चूरू मुआवजे की प्रक्रिया पूरी करें।
- तत्कालीन जांच अधिकारी और एसएचओ तारानगर के खिलाफ विभागीय जांच की जाए, जिन्होंने गलत चार्जशीट प्रस्तुत की थी।
न्यायपालिका का संदेश:
कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा कि,
“ऐसे मामलों में जहां पुलिस जानबूझकर निर्दोष को फंसाती है, वहां न्याय व्यवस्था की साख पर आंच आती है। लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोच्च है और उसका संरक्षण न्यायालय का परम कर्तव्य है।”
निष्कर्ष:
यह फैसला न्यायपालिका की नैतिक शक्ति और संविधान में निहित मौलिक अधिकारों की रक्षा का उत्कृष्ट उदाहरण है। साथ ही यह प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही को भी रेखांकित करता है कि अगर वे अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करेंगे, तो न्यायपालिका उन्हें छोड़ने वाली नहीं है।
इस आदेश के साथ न्याय की लौ फिर से जली है – खासकर उन लोगों के लिए जो कमजोर, दिव्यांग या हाशिए पर खड़े हैं, लेकिन जिनका विश्वास अब भी संविधान और न्यायपालिका में अटल है।