“धारा 34, विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के अंतर्गत मात्र स्वामित्व की घोषणा का वाद तब अस्वीकृत होता है जब वादी संपत्ति के कब्जे में नहीं हो और वह कब्जे की परिणामी राहत की मांग नहीं करता: कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय”
परिचय:
भारत में संपत्ति विवादों के संदर्भ में Specific Relief Act, 1963 की धारा 34 के तहत वादी को अपने कानूनी अधिकार या स्वामित्व की घोषणा कराने की स्वतंत्रता दी गई है। लेकिन यह स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है। जब वादी संपत्ति के कब्जे में नहीं होता है और फिर भी केवल स्वामित्व की घोषणा चाहता है, तो न्यायालय इस पर अंकुश लगा सकता है। इसी सिद्धांत को लेकर कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि ऐसे मामलों में केवल स्वामित्व की घोषणा (mere declaration) का वाद स्वीकार्य नहीं है।
धारा 34 का सारांश:
धारा 34, विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 कहती है कि—
“कोई व्यक्ति जिसे यह अधिकार प्राप्त है कि वह कोई कानूनी पात्रता या उसके खंडन के बारे में न्यायालय से घोषणा करवा सके, वह एक घोषणा के लिए वाद दायर कर सकता है कि वह पात्रता उसके अधिकार में है। परंतु यदि वह उससे संबंधित अन्य राहत की भी मांग कर सकता है, लेकिन ऐसा नहीं करता, तो न्यायालय उसे मात्र घोषणा नहीं देगा।”
कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय:
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि:
“जहां वादी संपत्ति के कब्जे में नहीं है और उसके पास कब्जे की परिणामी राहत (consequential relief of possession) की मांग करने की सामर्थ्य है, वहां वह केवल स्वामित्व की घोषणा के लिए वाद दायर नहीं कर सकता।”
न्यायालय की प्रमुख टिप्पणियां:
- मात्र घोषणा अपर्याप्त:
यदि वादी यह जानता है कि संपत्ति पर उसका कब्जा नहीं है, तो उसे केवल स्वामित्व की घोषणा की मांग नहीं करनी चाहिए। उसे साथ में possession (कब्जा) की भी मांग करनी चाहिए। - परिणामी राहत आवश्यक:
कानून की दृष्टि में जब कोई व्यक्ति संपत्ति के कब्जे में नहीं है, और वह दावा करता है कि वह उसका मालिक है, तो उसके पास पूर्ण राहत के लिए कब्जा प्राप्त करने की भी मांग करना आवश्यक हो जाता है। - वाद की अस्वीकृति:
ऐसे मामलों में जहां वादी जानबूझकर कब्जे की मांग नहीं करता, न्यायालय केवल घोषणा की राहत देकर वादी को अधूरा संरक्षण नहीं दे सकता।
प्रासंगिक उदाहरण:
मान लीजिए, ‘A’ नामक व्यक्ति किसी संपत्ति को अपनी बताता है, लेकिन वर्तमान में उस संपत्ति पर ‘B’ का कब्जा है। यदि ‘A’ केवल यह घोषणा चाहता है कि वह उस संपत्ति का मालिक है, लेकिन ‘B’ से कब्जा हटाने या पुनः कब्जा पाने की कोई मांग नहीं करता, तो उसकी याचिका न्यायालय में टिक नहीं पाएगी।
न्यायिक दृष्टिकोण का महत्व:
यह निर्णय भारत के न्यायिक तंत्र में इस बात को रेखांकित करता है कि कोई भी राहत तब तक पूर्ण नहीं मानी जा सकती जब तक उससे जुड़ी सभी आवश्यक परिणामी राहतों की मांग न की जाए। यह निर्णय याचिकाओं में पूर्णता और समग्रता की आवश्यकता पर भी जोर देता है।
निष्कर्ष:
कर्नाटक उच्च न्यायालय का यह निर्णय स्पष्ट करता है कि विशिष्ट राहत अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत कोई व्यक्ति तभी मात्र घोषणा की याचिका दायर कर सकता है, जब वह कब्जे में हो या उसके पास कोई अन्य परिणामी राहत मांगने का अधिकार न हो। यदि वादी कब्जे में नहीं है और कब्जा पाने की मांग नहीं करता, तो अदालत मात्र स्वामित्व की घोषणा नहीं कर सकती। यह निर्णय न्यायिक सिद्धांतों की दृढ़ता और याचिकाओं में पूर्ण राहत की मांग की अनिवार्यता को दर्शाता है।