शीर्षक: आपराधिक मामलों में अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति – नियम और उससे छूट एक अपवाद
परिचय
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाए रखने के लिए अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अंतर्गत यह एक स्थापित सिद्धांत है कि आपराधिक मामलों में अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति एक नियम (rule) है, जबकि उससे छूट (exemption) एक अपवाद (exception) है, जो केवल विशेष और उपयुक्त परिस्थितियों में दी जा सकती है।
यह सिद्धांत न केवल अभियोजन की दक्षता को सुनिश्चित करता है, बल्कि पीड़ित पक्ष और समाज के प्रति न्याय की प्रक्रिया को भी दृढ़ता प्रदान करता है।
न्यायिक उपस्थिति का महत्व
- न्यायालय के अधिकार को मान्यता:
अभियुक्त की उपस्थिति न्यायालय की प्रक्रिया के प्रति सम्मान को दर्शाती है। - साक्ष्य और गवाहों की उपस्थिति:
अभियुक्त की उपस्थिति गवाहों की सुरक्षा और उनके साक्ष्य की सच्चाई सुनिश्चित करती है। - न्याय की पारदर्शिता:
मुकदमे की कार्यवाही में अभियुक्त की भागीदारी निष्पक्ष सुनवाई का एक अनिवार्य हिस्सा है। - फैसले के प्रति जागरूकता:
अभियुक्त को पता रहता है कि उस पर क्या आरोप हैं, और मुकदमे में क्या प्रगति हो रही है।
कानूनी प्रावधान: CrPC की धारा 205 और 317
धारा 205 – मजिस्ट्रेट द्वारा उपस्थिति से छूट:
अगर अभियुक्त न्यायालय में प्रस्तुत होने से पहले या बाद में आवेदन करता है, और न्यायालय यह समझता है कि उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक नहीं है, तो वह उपस्थिति से छूट प्रदान कर सकता है।
धारा 317 – सुनवाई के दौरान अनुपस्थिति:
कोई अभियुक्त यदि किसी उचित कारण से उपस्थित नहीं हो सकता, तो न्यायालय उसके वकील को उपस्थिति के लिए अनुमति दे सकता है, बशर्ते इससे न्याय में कोई बाधा न आए।
न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial View):
State of U.P. v. Shambhu Nath Singh (2001)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति न केवल अधिकार है, बल्कि यह न्यायिक अनुशासन और विधिक प्रक्रिया की आत्मा है।
Bhaskar Industries Ltd. v. Bhiwani Denim & Apparels Ltd. (2001)
इस फैसले में न्यायालय ने माना कि ऐसे मामले जहां अभियुक्त किसी अन्य राज्य या दूरस्थ स्थान से आता है, वहां उचित परिस्थितियों में छूट दी जा सकती है, लेकिन यह स्वचालित रूप से नहीं दी जा सकती।
छूट किन मामलों में दी जा सकती है?
- अभियुक्त गंभीर बीमारी या शारीरिक अक्षमता से ग्रस्त हो।
- अभियुक्त का कार्य स्थान या निवास स्थान न्यायालय से बहुत दूर हो।
- अभियुक्त सरकारी या सार्वजनिक सेवा में व्यस्त हो (जैसे सांसद/विधायक) – परंतु छूट स्वतः नहीं मिलती।
- जब उपस्थिति से मुकदमे की कार्यवाही में कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
छूट देने से पहले न्यायालय को क्या देखना चाहिए?
- अभियुक्त की अनुपस्थिति से न्याय में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।
- अभियुक्त की उपस्थिति की आवश्यकता क्या प्रक्रियात्मक है या मूलभूत?
- क्या अभियुक्त के वकील उसकी ओर से पर्याप्त रूप से प्रस्तुत हो सकते हैं?
दुरुपयोग की संभावना
यदि उपस्थिति से बार-बार छूट दी जाती है, तो इससे निम्न समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं:
- मुकदमे में अनावश्यक देरी
- अभियुक्त द्वारा साक्ष्य से छेड़छाड़ की संभावना
- पीड़ित की मानसिक पीड़ा और निराशा
इसलिए, छूट देने का निर्णय विवेकपूर्ण और विवेचना पर आधारित होना चाहिए।
निष्कर्ष
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता का यह मूल सिद्धांत कि “व्यक्तिगत उपस्थिति नियम है, और छूट अपवाद” — न्याय की निष्पक्षता, पारदर्शिता और विधिक प्रक्रिया की गरिमा को बनाए रखने में सहायक है। हालाँकि छूट की व्यवस्था न्यायिक सहानुभूति और व्यावहारिकता को दर्शाती है, फिर भी उसका प्रयोग संयम और विवेक के साथ ही होना चाहिए।
न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस सुविधा का दुरुपयोग न हो और न्याय का उद्देश्य कहीं खो न जाए। न्याय प्रक्रिया की सफलता इसी संतुलन में निहित है।